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आलोक प्रज्ञा का
सार क्या है ?
१२१. तृप्तिदं स्वास्थ्यदं शश्वद्, चेतःप्रसत्तिकारकम् ।
शक्तिदं शान्तिदं पूतं, सारमित्यभिधीयते ।।
गुरुदेव ! इस असार संसार में सार किसे कहा जाए ?
वत्स ! जो सदा तृप्ति देने वाला है, स्वास्थ्य देने वाला है, चित्त को प्रसन्न करने वाला है, शक्ति देने वाला है, शान्ति देने वाला है और जो पवित्र है, उसे सार कहा जाता है।
कौन कब ?
१२२. ज्ञानिनां पर्षदि प्रायो, मौनमज्ञानिनो वरम् ।
अज्ञानिनां समक्षे तु, ज्ञानी भवति मौनभाक् ।।
भंते ! ज्ञानी को मौन कब रहना चाहिए और अज्ञानी को मौन कब रहना चाहिए ?
शिष्य ! ज्ञानियों की सभा में अज्ञानी का मौन रहना अच्छा है और अज्ञानियों के सामने ज्ञानी का मौन हो जाना अच्छा है।
१२३. अज्ञानं स्वस्य यत्राऽस्ति, तत्र मौनं हि शोभनम् ।
विवादो वर्धते यत्र, मौनं तत्राऽतिशोभनम् ॥
जहां स्वयं का अज्ञान झलकता हो वहां मौन होना ही अच्छा है। जहां विवाद बढता हो वहां मौन होना बहुत अधिक अच्छा है।
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