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आलोक प्रज्ञा का
विभिन्नमतयो लोकाः
१२४. यथार्थग्राहिणः केचित् केचिदऽस्थिर बुद्धयः । केचिदाग्रहिणो लोकाः, कदाग्रहपराः परे ।।
१२५. विभिन्नमतयो लोका, इति सत्यं सनातनम 1 सर्वेषां तुल्यता वत्स !, व्यवहारे न सम्मता ॥
शिष्य गुरु की उपासना में बैठा था । उसने जिज्ञासा की - भंते ! व्यवहार में सबकी समानता नहीं है, ऐसा क्यों ?
आचार्य ने कहा - वत्स ! कुछ लोग यथार्थ ग्राही होते हैं तो कुछ अस्थिर बुद्धि वाले होते हैं । कुछ आग्रही होते हैं तो कुछ कदाग्रह में तत्पर रहते हैं । यह सनातन सत्य है कि लोग भिन्नभिन्न मति वाले होते हैं, इसलिए व्यवहार में सबकी समानता सम्मत नहीं है ।
भाव और भाषा
१२६. भावोऽन्तविद्यते पुंसां, भाषा व्यक्ति नयत्यमुम् । द्वयोरपि सुधाभावं प्राप्तः कश्चिन्महामनाः ||
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भंते ! भाव कहां रहते हैं ? उन्हें प्रगट कौन करता है ? वत्स ! भाव मनुष्य के अन्तर्जगत् में रहते हैं, भाषा उनको अभिव्यक्ति देती है ।
भंते ! क्या भाव और भाषा दोनों अच्छे ही होते हैं ?
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वत्स ! कभी भाव अच्छा होता है, भाषा अच्छी नहीं होती । कभी भाषा अच्छी होती है, भाव अच्छा
नहीं होता
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