________________
आलोक प्रज्ञा का
४१
आत्मदर्शी व्यक्ति ही त्यागी और इन्द्रियजयी हो सकता है । आत्मदर्शी का लोक अनात्मदर्शी के लोक से भिन्न होता है ।
दोहरी मूर्खता
११६. संयमश्चित्तशुद्धिश्च बन्धः कर्मरसो मतः । प्रथम बालभावं यः, त्यजेत् त्यजति सोऽपरम् ॥
"
भंते ! मनुष्य गलती करता है, फिर वह उसे छिपाता है । यह उसकी दोहरी मूर्खता है। उससे कैसे बचा जा सकता है ?
शिष्य ! उसके चार उपाय हैं-संयम, चित्त-शुद्धि, कर्मबन्ध और उसके फल के प्रति जागरूकता । जो पहली बालभाव - मूर्खता - अज्ञानजन्य मूर्खता को छोड़ देता है, वह दूसरी मूर्खता को भी छोड़ देता है ।
अहिंसा का शस्त्र
१२०. अग्रतः चतुरो वेदाः, पृष्ठतः सशरं धनुः । अहिंसा पुरतः शस्त्रं, पृष्ठतः शस्त्रमायसम् ।।
जब महर्षि परशुराम चलते थे तब उनके आगे-आगे चार वेद और पीछे-पीछे बाण संधा हुआ धनुष चलता था । आचार्यश्री तुलसी ऐसे वातावरण का निर्माण करना चाहते हैं कि आगे अहिंसा का शस्त्र रहे और लोह का शस्त्र पीछे रहे । इसका तात्पर्य है कि जीवन में शस्त्र की प्रधानता न हो, अहिंसा की प्रधानता हो । यही अहिंसा की प्रतिष्ठा का सूत्र है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org