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________________ आलोक प्रज्ञा का गुरुदेव ! सफलता की कुञ्जी क्या है ? वत्स ! सफलता की कुञ्जी है— उचित श्रम में क्या कर सकता हूं और क्या नहीं कर सकता -- इस चिन्तन में तुम श्रम मत लगाओ। जो तुम्हारे लिए शक्य है, उसके विकास में क्या तुम उचित श्रम करते हो ? यह सोचो । चारित्र का स्रोत ६०. कुतश्चारित्रमायाति विचारादथवा मतः । चारित्रस्रोतसो ज्ञानं कर्तुमिच्छामि सम्प्रति ॥ देव ! मैं चारित्र के स्रोत का ज्ञान करना चाहता हूं । वह कहां से आता है— विचार से अथवा बुद्धि से ? ६१. नो मतिर्नो विचारश्च चारित्रस्रोत इष्यते । विशुद्धा चेतनाऽन्तःस्था, चारित्रं जनयत्यसौ । , वत्स ! चारित्र का स्रोत न बुद्धि है और न विचार | उसका स्रोत है - आन्तरिक चेतना की निर्मलता । वह जितनी निर्मल होती है उतना ही चारित्र प्रस्फुटित होता है । जीभ का संयम २. संयमो दमिता वृत्तिः, असंयमो बलक्षयः । द्वयोरपि समाधानं जिह्वासंयम इष्यते ॥ ३१ Jain Education International भगवन् ! कामवासना का संयम किया जाए तो मनोविज्ञान के अनुसार कहा जाता है कि वासना का दमन करना अच्छा नहीं है । यदि संयम न किया जाए तो बल क्षीण होता है । यह 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003161
Book TitleAlok Pragna ka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages80
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size3 MB
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