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आलोक प्रज्ञा का
इच्छा : व्यक्त-अव्यक्त
३२. अव्यक्तो वर्तते कश्चित्, व्यवहारप्रवर्तकः ।
व्यक्तस्य निग्रहः कार्योऽव्यक्तः प्रतनुतां व्रजेत् ॥
भंते ! व्यक्त इच्छा के निग्रह से अव्यक्त इच्छा का निरोध कैसे होगा?
वत्स ! जैन दर्शन की भाषा में व्यक्त और अव्यक्त-ये दो इच्छाएं हैं। अव्यक्त इच्छा से हमारे व्यवहार का प्रवर्तन होता है । व्यक्त इच्छा भी उसी से प्रेरित है। जब व्यक्त इच्छा का निग्रह होगा तो अव्यक्त इच्छा अपने आप प्रतनु [दुर्बल] हो जाएगी।
प्रमत्त : अप्रमत्त
३३. जयस्य सूत्रं निर्देष्ट, नाहमस्मि क्षमस्तथा ।
पराजयस्य सुत्रं तु, प्रमादात् परमस्ति नो ॥ भंते ! विजय का सूत्र क्या है ?
वत्स ! विजय का सूत्र बताने में मैं असमर्थ हूं। पराजय का सूत्र बता सकता हूं। उसका सबसे बड़ा सूत्र है—प्रमाद । ३४. आयुर्बन्धक्षणो नास्ति, निश्चितस्तेन संततम् ।
भाव्यमेवाऽप्रमत्तेन, प्रतिक्षणं प्रतिक्षणम् ॥
भंते ! अप्रमत्त जीवन क्यों जीना चाहिए ?
वत्स ! आयुष्यबन्ध का क्षण निश्चित नहीं होता, इसलिए मनुष्य को प्रतिक्षण जागरूक रहना चाहिए।
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