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मूल्यपरक शिक्षा : सिद्धान्त और प्रयोग
हमारे दो जगत् हैं। एक है भीतर का जगत् और दूसरा है बाहर का जगत् । भीतर का जगत् बहुत सूक्ष्म है और बाहर का जगत स्थूल है। बाहर के जगत् से व्यवहार को नापा जा सकता है, देखा जा सकता है। भाव का जगत् सूक्ष्म है। उसे पकड़ना बहुत कठिन है। जैसा स्राव होता है वैसा भाव होता है, वैसा ही व्यवहार होता है। भाव आन्तरिक प्रेरणा है। उससे निरपेक्ष होकर व्यवहार करते हैं तो भाव और व्यवहार की संवादिता नहीं होती।
जीवन में मूल्यों का अवतरण हो, शिक्षा के साथ मूल्यों का बोध हो तथा विद्यार्थी के जीवन में मूल्यों की प्रतिष्ठा हो, यह वर्तमान की शिक्षा के साथ सुचिंतित विचार चल रहा है। कुछ समय पूर्व राजस्थान विश्वविद्यालय में कुलपतियों की एक बैठक हुई थी। उसमें सत्तर से अधिक कुलपति सम्मिलित हए थे और उन्होंने मूल्यपरक शिक्षा पर काफी विचार विमर्श किया। सब चाहते हैं कि विद्यार्थी के जीवन में मूल्यों की प्रतिष्ठा हो।
सत्य एक मूल्य है। इसके दो पहलू हैं-भावात्मक और व्यवहारात्मक । सिद्धांत का ज्ञान कराया जाता है, किंतु परिवर्तन की बात बहत कम होती है। जितने सिद्धान्त हैं, जितना वाङमय है, जितने उपदेश हैं, उनका काम है जानकारी दे देना। किंतु उनसे भावात्मक परिवर्तन हो या व्यवहार बदले, ऐसा बहुत कम होता है। कभी किसी की बात सुनकर व्यक्ति का मस्तिष्क झंकृत हो उठता है और वह बदल जाता है, पर इसे सामान्य घटना नहीं माना जा सकता।
आज सभी धर्मोपदेशकों के समक्ष यह एक जटिल प्रश्न उपस्थित है कि प्रतिदिन प्रवचन, सत्संग और नानाविध उपासनाएं होने पर भी लोगों में कोई परिवर्तन लक्षित नहीं होता। लोग प्रतिदिन प्रवचन सुनते हैं, पर व्यवहार में कोई रूपान्तरण नहीं होता। यह क्यों?
एक दिन पिता ने पुत्र से कहा--'बेटे! मैं रोज प्रवचन सुनने के
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