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शिक्षा और जीवन-मूल्य (१)
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पुत्र उतना संयमी नहीं था। उसने सोचा, खाने को रोटी चाहिए। रोटी मिल रही है, कौन व्यवसाय का झंझट करे। उसने रुपये ब्याज पर दे दिये। जो ब्याज मिलता उससे गुजारा कर लेता। सबसे बड़ा पुत्र संवेदनाओं का दास था। वह वहां गया, जहां संवेदनाओं की पूर्ति होती है। खूब मौज-शौक करने लगा। हजार रुपये खर्च हो गए। उसके पास अब एक भी पैसा नहीं रहा। वह दर-दर का भिखारी बन गया। वह पेट भरने के लिए जंगल में जाता, लकड़ियों का भारा ले आता और जो कुछ पांच-दस पैसे मिलते, उससे गुजारा करता।
तीन वर्ष पूरे हुए। तीनों पिता के पास गए। पिता ने कहा-लाओ, अपनी मूल पूंजी वापस करो। बड़ा पुत्र बोला--'पिताजी! मैं इन्द्रियों का दास बन गया था। इन्द्रिय- विषयों की पूर्ति में मैंने सारा धन गंवा दिया। मेरे पास कुछ नहीं बचा। केवल शरीर बचा है और वह भी जर्जर । दूसरे पुत्र ने मूल पूंजी पिताजी को लौटाते हुए कहा-'पिताजी ! यह मूलपूंजी मैंने सुरक्षित रखली थी। इसके व्याज से जो प्राप्त होता, उससे जीवन-यापन करता रहा। तीसरे पुत्र ने कहा-'पिताजी ! मूल पंजी सौ गुना बढ़ गई है। स्थान- स्थान पर मेरा व्यवसाय चल रहा है। ये रहे बही-खाते।।
पहले लड़के ने मूल पूंजी खो डाली। दूसरे ने मूल पूंजी सुरक्षित रख ली और तीसरे ने मूल पूंजी को बहुत बढ़ा लिया।
जिस व्यक्ति का अपनी संवेदनाओं पर नियंत्रण होता है वह बहुत आगे बढ़ जाता है। जिसमें नियंत्रण की पूरी क्षमता नहीं होती. एक सीमा तक होती है, वह मूल स्थिति में कायम रह जाता है। जो संवेदनाओं का दास बन जाता है, वह अपने जीवन की दुर्गति कर बैठता है। उसका अधःपतन होता है। हम इस सचाई का अनुभव करें कि संवेदनाओं पर नियंत्रण किए बिना जीवन में विकास नहीं किया जा सकता। यदि इस स्थिति का साक्षात्कार करना हो तो पश्चिमी जगत् की यात्रा करें। वहां एक नया दर्शन मिलेगा। वहां इतना बौद्धिक विकास, वैज्ञानिक दृष्टि का विकास और धन तथा सुख- सुविधा की सामग्री होने पर भी, इन्द्रियों की उच्छृखंलता के कारण वहां की स्थिति अत्यन्त दुःखद और पीड़ाकारक है। अमेरिका जैसे राष्ट्र में
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