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संवेग नियंत्रण की पद्धति
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करें? ज्ञान मात्र से आचरण की दूरी नहीं मिटती । कथनी और करनी की दूरी बोध - मात्र से नहीं मिटती । इसके लिए चैतन्य- केन्द्रों का जागरण बहुत महत्वपूर्ण है। हमें वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दृष्टि से इस पर विचार करना होगा। आध्यात्मिक दृष्टि यह है कि जिस व्यक्ति का तृतीय नेत्र जागृत होता है, वह अपने भावों पर कन्ट्रोल कर सकता है। तीसरे नेत्र का उद्घाटन और हृदय परिवर्तन-ये दो माध्यम हैं संवेगों को परिष्कृत करने के लिए।
हम वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें तो जिस व्यक्ति का पीनियल ग्लॉन्ड सक्रिय होता है, वह अपने संवेगों पर नियंत्रण कर सकता है। अथवा हाइपोथेलेमस, जो भाव- संवेदना का केन्द्र है, उसको नियंत्रित करने पर संवेगों पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है ।
दोनों दृष्टियां- आध्यात्मिक और वैज्ञानिक-लगभग समान रेखा पर आ जाती हैं। परिवर्तन के वे ही स्थान आ जाते हैं ।
हृदय परिवर्तन का अर्थ समझने में इन शताब्दियों में गड़बड़ हुई है। हृदय का अर्थ रक्त का शोधन करने वाला या रक्त को फेंकने वाला अवयव नहीं है। उसका क्या परिवर्तन किया जाये और उसके परिवर्तन से भाव परिवर्तन कैसे हो जाए? हमने इस पर बहुत विचार और मनन किया । हृदय परिवर्तन के संदर्भ में हृदय का अर्थ है मस्तिष्क का वह भाग जिसे हम 'हाइपोथेलेमस' कहते हैं। एक हृदय है कि धड़कने वाला जो फेफड़ों के पास है। एक हृदय है मस्तिष्क में। हमें उसमें परिवर्तन लाना है । यही है हृदय परिवर्तन का रहस्य । मस्तिष्क का जो 'फ्रन्टल लॉब' है, जिसे हम योग की भाषा में शान्तिकेन्द्र कहते है, वह हमारे भावों और संवेगों के लिए जिम्मेवार है। जब कभी मन में विनम्रता का भाव जागृत होता है, ललाट झुक जाता है। यह प्रतीक है हृदय परिवर्तन का । इस केन्द्र को जागृत करना है, इसमें परिष्कार लाना है ।
दूसरा है पीनियल ग्लॉन्ड में परिष्कार लाना । यह ज्योति - केन्द्र का स्थान है । शान्तिकेन्द्र - प्रेक्षा और ज्योतिकेन्द्र - प्रेक्षा- ये दो प्रयोग हैं भाव परिष्कार या संवेग परिष्कार के । इनसे संवेगों को अनुशासित किया जा सकता है । यदि विद्यार्थी को, दस-बारह वर्ष की अवस्था से
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