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संवेग नियंत्रण की पद्धति
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क्या आज शिक्षा के क्षेत्र में यह नहीं हो रहा है। हमारा ध्यान सब्जेक्ट पर, भोक्ता पर नहीं है। सारा ध्यान भोग्य पर, आब्जेक्ट पर केन्द्रित हैं। यह एक दुर्व्यवस्था है। इसका प्रतिरोध या प्रतिकार बहुत आवश्यक है।
मैं यह नहीं कहता कि साधनों पर ध्यान नहीं जाना चाहिए। साधन जरूरी है। उन्हें टाला नहीं जा सकता। मुख्य बात यह है कि वे जिसके लिए हैं, वह उपेक्षित नहीं होना चाहिए।
संवेगों का परिष्कार इसलिए जरूरी है कि यदि बालक अपने विद्यार्थी जीवन में असंतुलित संवेग वाला बन गया तो वह समाज के लिए सिरदर्द बन जाएगा। हम नहीं चाहते कि विद्यार्थी समाज के लिए सिरदर्द बने । आज तो यह स्थिति है कि विद्यार्थी शिक्षा के क्षेत्र में भी सिरदर्द बन जाता है। जो शिक्षाकाल में सिरदर्द बन जाता है वह आगे जाकर पूरा सिरदर्द बनेगा ही। इसलिए यह आवश्यक है कि शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थी के बौद्धिक विकास की तरफ जैसे ध्यान दिया जाता है वैसे ही उसके भावात्मक विकास की ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। इसके लिए संवेग का परिष्कार करना बहुत आवश्यक है।
किशोर अवस्था के आते आते शारीरिक उभार के साथ, अंगों के विकास के साथ, कुछ प्रवृत्तियां अनायास बन जाती हैं। इसे नकारा नहीं जा सकता। शिक्षा के क्षेत्र में शरीर- मनोविज्ञान की या जैविक रसायनों के अध्ययन की जो उपेक्षा हुई है उससे शिक्षा का प्रासाद पूरा बना नहीं, अधूरा ही रह गया। शिक्षा का उद्देश्य है-सर्वांगीण विकास में केवल बौद्धिक विकास की बात पर्याप्त नहीं होती।
सर्वांगीण विकास के लिए चार बातें आवश्यक हैं१. शारीरिक विकास २. मानसिक विकास ३. बौद्धिक विकास ४. भावनात्मक विकास आज के विद्यालयों में बौद्धिक विकास पर्याप्त मात्रा में कराया
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