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(३) वैयक्तिकता और सामाजिकता में सामंजस्य । (४) मानवीय संबंधों में परिवर्तन ।
(५) नैतिक मूल्यों का विकास ।
(६) आत्मानुशासन की क्षमता का विकास । (७) मानवीय समस्या के प्रति संवेदनशीलता का विकास । इनकी पूर्ति के लिए प्रथम कक्षा से ग्यारहवीं कक्षा तक का पाठ्यक्रम और प्रयोगक्रम तैयार किया गया है
पांच
स्वामी विवेकानन्द ने शताब्दीपूर्व कहा था- अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय होना चाहिए। आचार्य विनोबा भावे इस अपेक्षा को बार बार दोहराते रहे । जीवन - विज्ञान में इस अपेक्षा की पूर्ति की गई है ! इसमें दर्शन, अध्यात्म, योग और कर्मशास्त्र के साथ शरीर विज्ञान, शरीरक्रियाविज्ञान, मनोविज्ञान, समाजविज्ञान, जैव- रसायनशास्त्र और सृष्टि - संतुलन शास्त्र (इकोलोजी) का भी अपेक्षित अध्ययन कराया जाता है ।
जीवन विज्ञान की पृष्ठभूमि में व्यक्ति और समाज- दोनों को संतुलित मूल्य दिया गया है। समाज के संदर्भ से कटा हुआ व्यक्ति रामू भेड़िया बन सकता है, दार्शनिक और वैज्ञानिक नहीं बन सकता । व्यक्तिगत क्षमता के बिना वह विद्यालय का जीवन जीकर भी बौद्धिक विकास नहीं कर सकता । सामाजिक और वैयक्तिक दोनों अस्मिताओं का योग होने पर ही पूर्ण व्यक्तित्व विकसित होता है ।
व्यक्तिगत जीवन स्वयंकृत कर्म के द्वारा निर्मित होता है । प्रत्येक मनुष्य अपने अपने कर्म के अनुरूप शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि, स्वास्थ्य, आयु और सुखानुभूति प्राप्त करता है। हम कर्म - संस्कार को छोड़कर व्यक्तित्व की सही व्याख्या नहीं कर सकते ।
सामाजिक जीवन संबंधों के द्वारा निर्मित होता है। संबंध का पहला सेतु है आनुवंशिकता (हेरिडिटी, जीन और क्रोमोसोम ) । प्राणी अपने माता पिता से संस्कार प्राप्त करता है, वातावरण और परिस्थिति से सीखता है । इसलिए सामाजिक संदर्भ के बिना भी व्यक्तित्व की पूर्ण व्याख्या नहीं की जा सकती ।
हमारे व्यक्तित्व के दो पहलू हैं- सामाजिक और वैयक्तिक । जो
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