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________________ ३६ जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प नहीं हो सकता ! सामंजस्य हमारे जीवन का मूल्य है। यह सह-अस्तित्व का मूल मंत्र है। इस स्थिति के निर्माण में दर्शन और धर्म का पूरा सहयोग रहता है। जीवन विज्ञान के क्षेत्र में दर्शन का अर्थ है-सर्वांगीण जीवन-दर्शन, वह जीवन जो एकपक्षीय न हो। प्रश्न यह है कि सर्वांगीण जीवन-दर्शन के प्रति हमारी रुचि कैसे बढ़े और नियंत्रण की शक्ति का विकास कैसे हो? इस प्रश्न के समाधान में हमें विनम्रता के मूल्य को विकसित करना होगा। प्राचीन सूत्र है-'विद्या ददाति विनयम्'-विद्या विनय उपलब्ध कराती है। इसको हम इस प्रकार बदल दें-'विनयो ददाति विद्याम'-विनय विद्या उपलब्ध कराता है। दोनों का संबंध है। एक चक्र बन जाता है। विद्या विनय देती है। विनय विद्या देता है। यह भी रूढ़ जैसा बन गया है। हम इस अर्थ को कम पकड़ पा रहे हैं कि विद्या विनय कैसे देती है? विनय विद्या कैसे देता है ? विद्या ग्रहणशील व्यक्ति को प्राप्त होती है। जो ग्रहणशील नहीं होता वह विद्या को प्राप्त नहीं कर सकता। ग्रहणशील वह होता है जो विनम्र होता है। वह विद्या को पकड़ पाता है। यह हीनभावना या लाचारी नहीं है। आज शिक्षा के क्षेत्र में विनय को हीनभावना माना जाता है। विनय की परिभाषा है-ग्रहणशीलता। यहां कोई अवरोध नहीं, रुकावट नहीं। द्वार सदा खुला रहता है। शिक्षा के साथ यह बात जुड़नी चाहिए। किंतु यह भी धार्मिक चेतना के बिना नहीं हो सकती। जब आवेगों पर नियन्त्रण पाने में कठिनाई होती है तब समग्र जीवन-दर्शन की प्राप्ति संभव नहीं होती। जिस दर्शन की प्रणाली में सामाजिक, आर्थिक और नैतिक मूल्य तथा मानसिक और आध्यात्मिक मूल्यों की संभावना का समावेश नहीं होता, वह एकांगी है। उससे बहुत भला नहीं होता। सर्वांगीण दर्शन वह होता है जिसमें विभिन्न स्तरीय मूल्यों का सामंजस्य होता है। यह शिक्षा का सर्वांगीण दर्शन बनता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003160
Book TitleJivan Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size7 MB
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