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शिक्षा और नैतिकता सकता और अनुशासनहीनता की समस्या का समाधान हो नहीं सकता। शारीरिक अनुशासन बहुत आवश्यक है। जीवन विज्ञान में उसके कुछ उपाय खोजे गए हैं। उनमें एक उपाय है आसन । आसन कोई नई खोज नहीं है, पुरानी बात है, किन्तु जीवन विज्ञान में उन आसनों का समावेश किया गया है, दूसरे शब्दों में वह शारीरिक अनुशासन स्वीकृत किया है जो मानसिक और भावात्मक अनुशासन में सहयोगी बनता है।
___ हमने शशांक आसन को बहुत महत्व दिया है। इसके द्वारा एड्रीनल ग्लेड या तैजसकेन्द्र पर अनुशासन किया जा सकता है। वासना कितनी ही प्रबल हो, उच्छृखल हो, सिद्धासन के द्वारा उस पर नियंत्रण हो सकता है। यह निश्चित उपाय है काम-वासना पर विजय पाने का। इससे उत्तेजना की प्रबलता मिट जाती है और एक अनुशासित क्रम बन जाता है। मैं नहीं कहता कि उससे व्यक्ति वीतराग बन जाता है। पर यह निश्चित है कि उससे अतिरिक्तता समाप्त हो जाती है।
यह शारीरिक अनुशासन भावात्मक और मानसिक स्थिति का अनुसरण करता है। प्राचीन आचार्य ने गुजराती- राजस्थानी में एक ग्रंथ लिखा है। उसमें उन्होंने नाभि के पास होने वाली सारी वृत्तियों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। क्रोध, लोभ, अहंकार आदि जहां पैदा होते हैं, उनका विवरण प्रस्तुत करते हुए वे बताते हैं कि ये सारी वृत्तियां नाभि के आसपास पैदा होती हैं। यदि हम नैतिकता की दृष्टि से सोचें तो यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि जब तक इन वृत्तियों पर अनुशासन नहीं होता तब तक हजार उपक्रम करने पर भी नैतिकता नहीं आ सकती।
आज की शिक्षा- प्रणाली में अनेक शारीरिक आसन कराए जाते हैं, व्यायाम कराया जाता है, जिससे कि विद्यार्थी का शरीर स्वस्थ रहे। यह भी शारीरिक अनुशासन का एक पक्ष है, पर भावात्मक परिवर्तन की दृष्टि से जो आसन अपेक्षित हैं उनका समावेश शिक्षा में होना चाहिए। ये आसन ग्रंथि- संतुलन और नाड़ी- संतुलन में सहयोगी बनते हैं।
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