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जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प
परिवेश के आधार पर करते हैं। मनोविज्ञान में हेरिडिटी-आनुवंशिकता के आधार पर विचार किया गया। आनुवंशिकता के कारण भी यह होता है। किन्तु उससे आगे जो विज्ञान की भाषा में सोचता है, उसके लिए कोई आवश्यक नहीं, क्योंकि वहां प्रयोग और परीक्षण की सीमा आ जाती है। आगे कुछ बढ़ता नहीं। प्रश्न अनबुझे रह जाते हैं।
आज नैतिकता का विकास क्यों नहीं हो रहा है? करता क्यों नहीं मिट रही है? इसका दार्शनिक कारण कर्म के आधार पर बताया जाता है। कर्म के कारण भी इस समस्या के सुलझने में कठिनाई आती है। यदि हम यह मान बैठते हैं कि कर्म में जो है वह वैसा ही घटित होता है, बदलता नहीं, तब तो नैतिकता, अनैतिकता और शिक्षा के साथ नैतिकता का संबंध आदि बातें व्यर्थ हो जाती हैं। किन्तु कर्मवाद का ध्रुव सिद्धांत है कि कर्म को भी बदला जा सकता है। कर्म ध्रुव नहीं होते, परिवर्तनशील होते हैं। इनमें परिवर्तन का अवकाश है।
कर्म सूक्ष्म हैं। वे अभिव्यक्त होते हैं स्थूल शरीर में। मनुष्य के मस्तिष्क की संरचना इतनी जटिल और सूक्ष्म है कि हजारों वैज्ञानिकों ने उसे समझने का प्रयत्न किया है, पर अभी तक जो ज्ञात हआ है वह थाड़ा है, अज्ञात अधिक है। कर्मशरीर सूक्ष्म है। उसका संवादी है स्थूल शरीर । कर्मशरीर के संस्कार स्थूल शरीर में अभिव्यक्त होते हैं। योग के क्षेत्र में इस बात पर विचार किया गया कि स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर का संगम-बिन्दु कहां है, जहां भीतर के प्रकंपन आकर उसको प्रभावित करते हैं। वह है हमारा भाव। भाव भीतर से आता है और स्थूल शरीर को प्रभावित करता है, भावित करता है। जो संगम- बिंदु खोजे गए उनमें एक है नाभि, जिसे योग की भाषा में मणिपूर चक्र और प्रेक्षाध्यान की भाषा में तैजसकेन्द्र कहा जाता है। दूसरा संगम- बिन्दु है विशुद्धि केन्द्र, जो थाइरायड ग्लैण्ड का केन्द्र है और तीसरा है मस्तिष्क का एक भाग, जो हाइपोथेलेमस कहलाता है। ये तीन, संगम- बिन्दु हैं जहां सूक्ष्म- जगत् स्थूल जगत् में प्रकट होता है।
शिक्षा के साथ संबंध जुड़ता है स्थूल जगत् का, हमारे स्थूल शरीर का। शारीरिक अनुशासन के बिना दूसरा अनुशासन आ नहीं
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