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व्यक्ति का समाजीकरण
जो कुछ चाहे कर सके। समाज में जीने वाला व्यक्ति पूर्णतः स्वतंत्र नहीं हो सकता। परतंत्रता भी उसके साथ जुड़ी रहती है। जहां एक से दो होते हैं, वहां परतंत्रता सापेक्ष स्वतंत्रता है। मोक्ष में निरपेक्ष स्वतंत्रता हो सकती है। यह परतंत्रतायुक्त स्वतंत्रता है। मोक्ष ही पूर्ण स्वतंत्रता का स्थान है। यहां का जीवन कितने अनुबन्धों और प्रतिबंधों से जुड़ा हुआ है? यहां पूर्ण स्वतंत्रता की बात प्राप्त नहीं होती। जो व्यक्ति अहंकार के वशीभूत होकर यहां पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ खोजने लग जाता है, वह कठिनाई पैदा करता है।
एक साहित्यकार था। अहंकारवश वह अपनी पत्नी से कहने लगा-देखो, मेरे लेखों के कारण कितनी पत्र-पत्रिकाएं बिकती हैं। मेरे साहित्य के कारण कितनी पुस्तकें बिकती हैं। मेरे ही कारण साहित्यिक गतिविधियां चल रही हैं। पत्नी ने सुना। उसने सोचा, अहंकार से बोल रहे हैं। वह धीमे से बोली-आप ठीक कह रहे हैं। आप ही के कारण हमारा यह घर भी बिक गया। अब न जाने और क्या क्या बिक जायेगा?
लेखन के कारण पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएं बिक सकती हैं तो घर से उदासीन रहने के कारण घर भी बिक सकता है और सब कुछ बिक सकता है। सारा जुड़ा हुआ है। स्वतंत्रता की सीमा को समझना आवश्यक है।
समाजीकरण का मूल आधार है-संवेगों का परिष्कार । यद्यपि संवेग वैयक्तिक होते हैं, फिर भी वे समाज को प्रभावित करते हैं। एक लड़के का गुस्सा पूरे परिवार को विघटित कर देता है। पिता का अहं और क्रोध पूरे राष्ट्र को विनाश के कगार पर ला खड़ा करता है। महामात्य चाणक्य ने लिखा है-जो नेता अपने संवेगों का नियन्त्रण नहीं रख सकता, वह पूरे राष्ट्र को ले डूबता है। इसलिए यह आवश्यक है कि संवेगों का परिष्कार किया जाए। शिक्षा को इसका माध्यम बनाना चाहिए।
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