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जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प
और संग्रह की समस्याएं हैं, उन्हें भी बदलना है। उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। उपेक्षा मूल्यों की प्रतिष्ठा नहीं करती बल्कि उनका विघटन करती है। समाज मूल्यों के आधार पर चलता है, उपेक्षा के आधार पर नहीं चलता। उपेक्षा का क्या परिणाम होता है, हम इस घटना से समझें।
एक गांव के पास तालाब था। वह पानी से लबालब भरा हुआ था। चारों ओर वृक्ष थे। वहां एक हाथी सुस्ता रहा था। लड़ते लड़ते दो गिरगिट वहां आए। वहां खड़े लोगों ने देखा, पर उन्होंने उपेक्षा बरती। लोगों ने सोचा, हमें क्या, लड़ते हों तो लडें । ये छोटे-से प्राणी लड़कर कौन सा अनर्थ घटित कर देगें! इधर- उधर दौड़ते-दौड़ते वे दोनों गिरगिट हाथी के कान में घुस गए। हाथी के खुजलाहट होने लगी। वह बेचैन हो उठा। आवेश बढ़ा और उसने कई पेड़ उखाड़ डाले। फिर उसने तालाब की पाल तोड़ दी। पानी बहा और वह गांव डूब गया।
कोई भी सामाजिक व्यक्ति उपेक्षा नहीं कर सकता। आचार्यश्री दिल्ली में थे। उन दिनों हिन्दुस्तान- पाकिस्तान का युद्ध चल रहा था। कुछ प्रोफेसर आए। हिंसा अहिंसा की बात चली। आचार्यश्री ने एक कपड़ा हाथ में लेकर कहा-इसके दो छोर हैं। एक को हम परिग्रह का छोर कह सकते हैं और दूसरे को हिंसा का छोर कह सकते हैं। जब तक आदमी परिग्रह के छोर को पकड़े रहता है, तब तक हिंसा नहीं छूटती। परिग्रह नहीं है तो हिंसा होगी ही नहीं। हम हिंसा को बहुत महत्व दे देते हैं, किन्तु उसके मूल कारण को भुला बैठते हैं। हिंसा के लिए परिग्रह नहीं, परिग्रह के लिए हिंसा होती है। संग्रह के लिए हिंसा है, हिंसा के लिए संग्रह नहीं है। जब तक आदमी परिग्रही होता है, उसके लिए हिंसा अनिवार्य बन जाती हैं। वह न उसकी उपेक्षा कर सकता है और न उसको छोड़ सकता हैं। परिग्रह के होते हए समाधान की बात जटिल हो जाती है।
परिग्रह का परिणाम है आग्रह और आग्रह का परिणाम है विग्रह । तीनों का एक चक्र बनता है-परिग्रह, आग्रह और विग्रह । जहां परिग्रह है वहां आग्रह होगा, पकड़ होगी। जब आग्रह होता है तब
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