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जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प
का उपयोग करते हैं और अपने व्यक्तिगत या पारिवारिक कार्य में व्यक्तिगत मोटर का अथवा बस आदि का उपयोग करते हैं। यह है प्रामाणिक व्यवहार।
यदि कोई साधु गृहस्थ के घर से कपड़े सीने के लिए सुई की याचना कर सुई लाता है तो वह उस सुई से कपड़े ही सी सकता है। उस सुई का उपयोग दूसरे कार्य में नहीं कर सकता। यदि करता है तो वह असत्य का दोषी होता है। कपड़े काटने के लिए कैंची की याचना कर कैंची लाता है और यदि वह उससे कागज काट लेता है तो वह असत्यभाषण का दोषी होता है। यह है प्रामाणिकता।
प्रामाणिक व्यवहार जीवन का आधार है। इससे व्यक्तित्व निखरता है।
जीवन विज्ञान की शिक्षा पद्धति में विद्यार्थी को प्रामाणिक जीवन जीने की कला सिखाई जाती है। यदि सत्य के ये पांचों अर्थ विद्यार्थी के जीवन में समाविष्ट होते हैं तो वह विद्यार्थी राष्ट्र का उन्नत नागरिक बन सकता है और उसका व्यक्तित्व समाज के लिए दीप- स्तंभ बन सकता है। हम उसे आत्मा, परमात्मा, ईश्वर आदि परोक्ष तत्त्वों का ज्ञान कराएं पर उसे दार्शनिक जटिलताओं में न उलझाएं । ये सारे परोक्ष हैं, अमूर्त हैं। इनके मंडन- खंडन से विद्यार्थी कुछ प्राल कर सकेगा, ऐसा नहीं लगता। इसलिए हम उसे व्यवहार के धरातल पर सही ढंग से चलना सिखाएं और उसका जीवन उन्नत प्रामाणिक और सुखी बन सके, इस ओर उसे प्रेरित करें।
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