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जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प और करनी में समानता नहीं होती, वह है अवीतराग और जिनमें कथनी और करनी की समानता होती है, अविसंवादन होता है वह है वीतराग। रागग्रस्त व्यक्ति जैसा कहता है वैसा करता नहीं। यह उसका लक्षण है। मात्रा में तरतमता हो सकती है। यह एक मान्य तथ्य है कि इस ज्ञान और आचरण की दूरी को पूर्णतः मिटाया नहीं जा सकता, पर कम किया जा सकता है। इसलिए साधना का, धर्म और अध्यात्म का प्रयत्न यह होना चाहिए कि वह इस दूरी को कम करने की दिशा में जनता का मार्गदर्शन करे। प्रत्येक साधनानिष्ट, धर्मनिष्ठ और अध्यात्मनिष्ठ व्यक्ति दूरी कम करने की दिशा में प्रस्थान करे तो जनता बहुत लाभान्वित हो सकती है।
राजनीति के क्षेत्र में यह दूरी चिन्ता का विषय नहीं है, क्योंकि वह क्षेत्र कुटनीति का है और उसकी बुनियाद इसी दूरी पर आधृत है। सामाजिक क्षेत्र में यह दूरी कुछ समस्याएं पैदा करती है। वहां भी वह चलती है, पलती है। यह आश्चर्य की बात नहीं है ! किन्तु आश्चर्य तब होता है जब आत्मा और चैतन्य के प्रति जागृत व्यक्ति भी उस दूरी को पालता है, बढ़ाता है। इसका स्पष्ट हेतु है कि व्यक्ति ने अहंकार और ममकार से अभी छुटकारा नहीं पाया है। ये दो हेतु उस दूरी के कारण है।
कथावाचक कथा कर रहा था। सैकड़ों व्यक्ति सुन रहे थे। उस परिषद में एक सेठ बैठा था। वह अत्यन्त उदास था। कथा पूरी हुई। लोग बिखर गए। कथावाचक ने सेठ को उदासी का कारण पूछा। सेठ ने कहा-मेरा जवान लड़का मर गया। उसका दुःख भुलाना चाहता हूं, पर वह और गहरा होता जा रहा है। कथावाचक ने उसे आश्वस्त करते हुए धर्म का उपदेश दिया और संसार की असारता तथा आत्मा की अमरता की बात बताई। कथावाचक बोला-'सेठजी ! दुःख क्यों करते हैं? आत्मा अमर है। वह मरती नहीं, केवल चोला बदलता है। यह संसार है।' कथावाचक समझा ही रहा था कि इतने में एक जवान लड़के ने आकर कथावाचक के कान में कुछ कहा. और कथावाचक रोने लगा। कथावाचक की आंखों में आंसू टपकने लगे। सेठ अपना दुःख भूल गया। उसने पूछा-अरे, आप क्यों रो रहे हैं?
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