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व्यक्तित्व निर्माण का उपक्रम : जीवन विज्ञान
कुछ यात्री नौका से उतरे। उन्हें गांव पहुंचना था। एक व्यक्ति से पूछा-'क्या सूरज के अस्त होते होते हम गांव में पहुंच जाएंगे?' उसने कहा-'धीरे चलोगे तो पहुंच जाओगे, तेज चलोगे तो नहीं पहुंच पाओगे, बिलकुल उल्टी बात थी
कुछ लोग तेज चलने लगे। भूमि ऊबड़-खाबड़ और पथरीली थी। वे एक एक कर गिर गए। चोट लगी। वहीं रुक गए।
आज गति की इतनी तीव्रता हो गई है कि आदमी जल्दी पहुंचे, लेकिन कभी कभी ऐसा होता है कि जल्दी पहुंचने वाला बीच में ही लड़खड़ा जाता है। जैसे जैसे टेक्नोलोजी का विकास हो रहा है, वैसे वैसे आदमी अनुभव कर रहा है कि उसे पीछे मुड़कर देखने की जरूरत हो गई है। वह समझता है कि आदमी बहुत आगे बढ़कर भी बहुत पिछड़ गया है। आज आदमी पिछड़ गया और 'रोबोट' आगे बढ़ गया, कंप्यूटर हावी हो गया। दूसरे शब्दों में आदमी पीछे रह गया और यंत्र आगे आ गया। यह गति की तीव्रता का एक परिणाम है।
प्रश्न है परिवर्तन का। बहुत वर्ष पहले आचार्यश्री ने धर्मक्रान्ति की आवश्यकता महसूस की थी। प्रेक्षाध्यान, अणुव्रत, जीवन विज्ञान-ये सारे उसी धर्मक्रान्ति के चरण हैं। अणुव्रत से सब लोग परिचित हैं। प्रेक्षाध्यान से भी काफी लोग परिचित हैं, किन्तु जीवन विज्ञान सबके लिए नया है। यह धर्मक्रान्ति का एक सूत्र बना है। धार्मिक व्यक्ति आत्मा, परमात्मा, जगत् आदि आदि की दार्शनिक चर्चाएं करता है। यह धर्म जगत् की मुख्य चर्चा है और आज का धार्मिक जगत् इसी में लगा हुआ प्रतीत होता है।
जीवन विज्ञान का प्रारंभ आत्मा से नहीं होता! उसका प्रारंभ शरीर और श्वास से होता है। हमारा यह निश्चित मत है कि जो इन दोनों को सही ढंग से नहीं जानता, उचित मूल्यांकन नहीं करता, वह आत्मा-परमात्मा को नहीं जान सकता। यह बात उल्टी लग सकती है, पर यह एक मोड़ है। सभी धार्मिक ग्रन्थ यही बताते हैं कि शरीर
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