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विद्यार्थी जीवन और ध्यान
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लगता है। जब श्वास पर ध्यान किया जाएगा तब श्वास के स्वरूप का बोध होने लगेगा। श्वास क्या है, स्पष्ट हो जाएगा। जब तक चित्त को श्वास पर नहीं टिकाया जाता तब तक श्वास की जानकारी नहीं हो सकती। मैंने एक भाई से कहा-अपना ध्यान कपडे पर टिकाओ। उसे ध्यान से देखो । कुछ समय तक वह कपड़े को देखता रहा, फिर उसने कहा-महाराज ! कपड़े को ध्यान से देखने पर कपड़े का एक एक तार मेरे सामने स्पष्ट हो गया और मुझे लगा कि कपड़ा सधन नहीं है, चलनी- मात्र है। हम किसी भी वस्तु को एकाग्रता से देखेंगे तो हमें उसका वास्तविक स्वरूप दीखने लग जाएगा। यह है 'विचार' की अवस्था।
ध्यान का तीसरा अंग है--'प्रीति' | जहां जानना होता है वहां राग-द्वेष नहीं होता। जहां राग-द्वेष होता है, वहां जानना नहीं होता। राग समाप्त होता है, तब प्रीति पैदा होती है। द्वेष समाप्त होता है, तब प्रीति पेदा होती है। जब पदार्थ के साथ भी प्रीति पैदा होती है तब उसके साथ सही सम्बन्ध होता हैं। शुद्ध मैत्री का संबंध ही प्रीति का संबंध है।
ध्यान का चौथा अंग है-'सुख' । यह हमारे चैतन्य की अवस्था है। यहां कोई बाधा नहीं होती। इन्द्रिय जगत में वास्तविक सुख नहीं हो सकता। जब तक विषयासक्ति का अतिक्रमण नहीं होता, तब तक सुख नहीं होता। जब केवल सत्य के साथ जुड़ते हैं तब सुख पैदा होता है। यह वास्तविक सुख की अवस्था है। जब यह अवस्था व्यक्ति में जागती है तब व्यक्ति यथार्थ में शिक्षित होता है। उसी को शिक्षित व्यक्ति मानना चाहिए।
साक्षरता और शिक्षा एक बात नहीं है। दोनों अलग- अलग है।
एक संन्यासी आया। नगर में डेरा डाला। वह किसी से कोई भेंट नहीं लेता था। वह बहुत प्रसिद्ध हो गया। राजा ने उसकी गुणगाथा सुनी। उसने सोचा, क्या ऐसा संन्यासी हो सकता है, जो कुछ भी नहीं लेता। यह ढोंग है, माया है। राजा ने उसकी परीक्षा करनी चाही। राजा बहुमूल्य उपहार लेकर संन्यासी के पास गया। संन्यासी आंखें मूंद कर ध्यान कर रहा था। कुछ समय बाद आंखें
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