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________________ तब होता है ध्यान का जन्म एकाग्रता - ये दोनों मन की भूमिकाएं हैं। जहां ये दोनों समाप्त हो जाती हैं, मन रहता नहीं है, विचार समाप्त हो जाते हैं और केवल चेतना ही जहां काम करती है, वह हमारा गंतव्य है। जहां केवल चेतना है वहां मन नहीं है । मन का कार्य वहीं होता है जहां चेतना का विकास कम है। ७० सातवीं भूमिका हम एकेन्द्रिय- एक इन्द्रिय वाले जीवों को जानते हैं । दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पांच इन्द्रिय वाले जीवों को जानते हैं। उससे आगे. संज्ञी-समनस्क-मानसिक विकास की भूमिका को जानते हैं । इन छह भूमिकाओं के विकास के क्रम से हम परिचित हैं किन्तु सातवीं भूमिका से हम परिचित नहीं हैं, जहां अमनस्क स्थिति आ जाती है, मन समाप्त हो जाता है। ध्यान की उस भूमिका का नाम है-अमनस्क भूमिका । वहां मन नहीं है, केवल चेतना काम करती है । इन भूमिकाओं को पार करने के लिए सबसे पहले आवश्यक है - सम्यक् दर्शन । हमारा दृष्टिकोण यह बने - मैं आत्मा हूं, मुझे अपने स्वरूप का साक्षात्कार करना है । यह आस्था बनेगी तो रुचि में परिवर्तन आएगा । इस स्थिति में रुचि केवल पदार्थ के प्रति नहीं होगी, आकर्षण केवल धन के प्रति नहीं होगा । एक नई रुचि पैदा होगी, आत्मा की रुचि पैदा होगी, आत्म-साक्षात्कार की रुचि पैदा होगी । अमृतत्व की भावना उपनिषदों में गार्गी और मैत्रेयी का प्रसंग आता है। मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य से कहा-जिससे मैं अमृत नहीं बनती, उसे लेकर क्या करूं? जो अमृतत्व का साधन हो, वही मुझे बताओ । येनाहं नामृता स्यां, किं तेन कुर्याम् । यदेव भगवान् वेद, तदेव मे ब्रूहि । । यह अमृतत्व की भावना है- जहां न जन्म हो, न मृत्यु हो, वैसा बनना है 1 जिसमें यह रुचि पैदा हो गई, उसे धन भी निकम्मा लगता है । आज किसी पुरुष कहा जाए - भाई ! यह धन तुम्हें देता हूं। क्या वह धन को अस्वीकार करेगा ? किसी महिला से कहा जाए-यह बहुमूल्य साड़ी ले लो । क्या वह कहेगी कि मुझे बहुमूल्य साड़ी नहीं चाहिए? किन्तु जिसमें अमृतत्व की रुचि जाग गई, उसके लिए धन, आभूषण और साड़ियां - सब मूल्यहीन बन जाते हैं । उसका ध्यान दूसरी दिशा में लग जाता है। उसे ये सब चीजें बहुत सामान्य लगने लग जाती हैं । जिस व्यक्ति की रुचि पदार्थ परक है, वह केवल पदार्थ की दृष्टि से देखता है । उसका सारा ध्यान उसी ओर जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003158
Book TitleTab Hota Hai Dhyana ka Janma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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