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ध्यान की दिशा बदलने के लिए की पद्धति विकसित हुई पर उसका आधार आत्मा नहीं रहा। क्योंकि बौद्ध दर्शन में मन पर ही सारा बल है। आत्मा मूल तत्त्व के रूप में स्वीकृत नहीं है। बुद्ध ने आत्मा को सीधी स्वीकृति नहीं दी। उन्होंने कहा-दुःख है, दु:ख का हेतु है। दु:ख मुक्ति हो सकती है. दु:ख मुक्ति का हेतु है। इस आर्य-चतुष्टयी पर बल दिया। बुद्ध ने कहा-तुम आत्मा की बात को छोड़ दो, वह बहुत गूढ बात है। आत्मा अव्याकृत है। उसका व्याकरण नहीं किया जा सकता।
महावीर ने आचार का प्रतिपादन किया तो सबसे पहले बतलाया- 'मैं कौन हूं?' 'कहां से आया हूं?' 'मैं आत्मा हूं' इस आधार पर सारे आचारशास्त्र का या ध्यान का विधान किया गया। यह मौलिक आधार का महत्त्वपूर्ण अन्तर है-एक ध्यान की पद्धति चलती है आत्म दर्शन के आधार पर और एक ध्यान की पद्धति चलती है केवल मन के आधार पर। मैं मानता हूं-मन के आधार पर ध्यान होता है। मन की एकाग्रता की बात भी हम करते हैं किन्तु वास्तव में जब तक हम मन से परे न चले जायें तब तक ध्यान की सिद्धि नहीं होती। हमें मन की समस्याओं में उलझे नहीं रहना है किन्तु ध्यान करते-करते मन से परे जाना है, मनोतीत बनना है, विकल्पातीत और निर्विकल्प भूमिका में जाना है। गंतव्य है निर्विकल्प चेतना
मन की भूमिका विचार की भूमिका है। जब तक हम निर्विचार की भूमिका में नहीं जाएंगे, निर्विकल्प नहीं बनेंगे तब तक पूरा मार्ग सही नहीं होगा। विकल्प का सहारा लेना पड़ता है। इस संदर्भ में उपाध्याय यशोविजयजी ने बहुत सुन्दर लिखा-विकल्परूपा मायेयं विकल्पेनैव नश्यति-यह सारा मायाजाल विकल्परूप है। विकल्प को विकल्प से ही काटना होगा। 'विषस्य विषमौषधम्'-यह चिकित्सा का सिद्धांत है। विकल्प को विकल्प से काटना प्रारम्भिक अवस्था है। जब हमारा बोध परिपक्व बन जब जाए तब विकल्प की भूमिका का अतिक्रमण कर देना है, निर्विकल्प ध्यान की अवस्था में जाना है। यद्यपि इस विषय पर भी दार्शनिक मतभेद रहा है। कुछ दर्शन ऐसे हैं, जो विकल्प को प्रमाण मानते हैं। कुछ दर्शन ऐसे हैं, जो विकल्प को प्रमाण नहीं मानते, निर्विकल्प को ही प्रमाण मानते हैं क्योंकि प्रत्यक्ष उसी अवस्था में होता है। निर्विकल्प अवस्था में चेतना का जागरण होता है। जब तक हम इन्द्रिय चेतना की भूमिका पर रहेंगे तब तक निर्विकल्प चेतना नहीं जागेगी, अतीन्द्रिय पदार्थों का साक्षात्कार नहीं होगा। निर्विकल्प
चेतना तक जाने का अर्थ है--मन से परे जाना, मन की समस्याओं में उलझे हुए नहीं रहना और मन का खेल नहीं खेलना। प्रारम्भ में मन के साथ भी ध्यान करना होता है, एकाग्रता की साधना भी करनी होती है। एकाग्रता आवश्यक भी है किन्तु एकाग्रता हमारा अन्तिम लक्ष्य नहीं है। वह भी एक मध्यवर्ती पड़ाव है। अनेकाग्रता और
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