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________________ ६८ तब होता है ध्यान का जन्म उसको बदलना चाहते हैं, यह कैसे संभव है? आकर्षण है व्यापार में, पैसा कमाने में, मनोरंजन में, टी.वी. और सिनेमा देखने में, आकर्षण है राग और द्वेष में। सबसे पहले रुचि की ओर ध्यान दें। आकर्षण की दिशा को पकड़ें-मेरा आकर्षण कहां है? बाहर है या भीतर? अगर बाहर आकर्षण है तो इसका मतलब है-आकर्षण पदार्थ के प्रति है। इसलिए आपका ध्यान बार-बार पदार्थ की ओर जाएगा। यदि आकर्षण भीतर है, अपनी चेतना के प्रति है, आत्मा के प्रति है तो ध्यान आत्मा के प्रति जाएगा। प्रश्न है रुचि और आकर्षण का । जब तक रुचि नहीं बदलेगी, आकर्षण नहीं बदलेगा, जो कारक तत्त्व है, उसमें परिवर्तन नहीं होगा तब तक ध्यान की दिशा में परिवर्तन नहीं हो सकता। दिशा का परिवर्तन तब होगा जब रुचि का परिष्कार होगा। सम्यग् दर्शन रुचि-परिष्कार का प्रधान तत्त्व है-सम्यग, दर्शन, दृष्टिकोण का परिष्कार। जब तक दर्शन सही नहीं होता तब तक रुचि का परिष्कार संभव नहीं होता। रुचि-परिष्कार के बिना ध्यान की दिशा का बदलना संभव नहीं है। भगवान महावीर ने आचार को पहला स्थान नहीं दिया, पहला स्थान दिया सम्यक् दर्शन को। आचार उसका परिणाम है। सम्यक् दर्शन है तो आचार अपने आप सम्यग् हो जाएगा। यदि सम्यक् दर्शन नहीं है तो चाहते हुए भी व्यक्ति सम्यक् आचार नहीं कर पाता किन्तु वह आचार करते-करते अतिचार कर लेगा। दर्शन ही सम्यग् नहीं है तो आचार सही कैसे होगा? सबसे पहले दर्शन सम्यग् होना चाहिए। ध्यान क्यों करें? ध्यान करने का उद्देश्य क्या है? ध्यान के साथ हमारा दृष्टिकोण क्या बने? यह दृष्टिकोण स्पष्ट होना चाहिए। ___ इस दुनिया में मूल पदार्थ दो हैं-चेतन और अचेतन, जीव और अजीव । ये दो हैं तो फिर प्रश्न होगा-मैं क्या हूं। इसका निर्णय करना होगा। मैं जड़ नहीं हूं, मैं चेतन हूं। मैं अजीव नहीं हूं, मैं जीव हूं, आत्मा हूं। यह आस्था या विश्वास अटल हो तो फिर आगे गति होगी। अगर यह आस्था नहीं है तो न रुचि का परिष्कार होगा, न सम्यग् दृष्टिकोण होगा और न ध्यान की दिशा बदलेगी। प्रेक्षा : आधारभूत तत्त्व प्रेक्षाध्यान का आधारभूत तत्त्व है आत्मा। जहां आत्मा में विश्वास नहीं है, वहां 'आत्मा के द्वारा आत्मा को देखें', का प्रश्न ही नहीं उठता। आत्मा का साक्षात्कार है, यह दृढ़ आस्था बनेगी तो प्रेक्षा की बात प्राप्त होगी। बहुत सारी ध्यान की पद्धतियां मन के आधार पर चलती हैं। श्रमण परम्परा का एक सम्प्रदाय है-बौद्ध दर्शन । उसमें ध्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003158
Book TitleTab Hota Hai Dhyana ka Janma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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