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तब होता है ध्यान का जन्म जा सकता है। ध्यान के द्वारा भी सत्य तक पहुंचा जा सकता है। जिस व्यक्ति में यह जिज्ञासा जाग जाती है, वह वास्तव में परिपक्व ध्यान को उपलब्ध होता है। वह उस भूमिका तक पहुंच जाता है, शेष बीच में ही अटक जाते हैं।
एक व्यक्ति ने नदी पार की, तट पर आया। तट पर अनेक लोग खड़े थे। सामने गांव था। उसने पूछा-मैं कब तक गांव में पहुंच जाऊंगा। सूरज ढलने को था। उत्तर देने वाले ने बड़ा अजीब उत्तर दिया-जल्दी चलोगे तो रात गहरी हो जाएगी और धीरे-धीरे चलोगे तो शाम तक पहुंच जाओगे।
____ बड़ी विचित्र बात है। ये उलट पहेलियां हमारी दुनिया में बहुत चलती हैं। उसने सोचा-उत्तर देने वाला कोई नासमझ है इसीलिए इतनी उलटी बात कहता है। वह खूब दौड़ा, तेज चला। नदी के तट पर गहरी चट्टानें थीं। एक चट्टान से टकराया, लड़खड़ाया और गिर पड़ा। चलते-चलते रात के बारह बज गए। जिज्ञासा जागे
दौड़ने की जरूरत नहीं है, धीमे-धीमे चलें किन्तु यह लक्ष्य रहे-गांव तक पहुंचना है, सत्य को खोजना है। यह लक्ष्य बन गया तो पहुंचा जा सकता है । यात्रा लम्बी हो, गति मन्द हो तो भी पहुंचा जा सकता है। जिसने लक्ष्य ही छोटा बना लिया, उसके पैर रुक जाएंगे। लक्ष्य बड़ा रखें-सत्य को खोजना है, आत्मा और पदार्थ को खोजना है। दोनों सत्य हैं-परमाणु भी सत्य है और आत्मा भी सत्य है। जैन दर्शन की परिभाषा में, सत्य में कोई अन्तर नहीं है। जिसका अस्तित्व है, वह सत्य है और उस सत्य को पाना है। वहां तक हमारी यात्रा चले और साथ में यह देखते रहें कि जिज्ञासा कितनी है। उपलब्धि जिज्ञासा पर निर्भर है। जिसके जितनी जिज्ञासा है, लक्ष्य उसके उतना ही पास
है।
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