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________________ ४४ तब होता है ध्यान का जन्म यह द्रव्य ध्येय है। सामने रखी घड़ी पर ध्यान करना चाहा तो घड़ी ध्येय बन गई। किसी भी चेतन-अचेतन वस्तु को ध्येय बनाया जा सकता है। वस्तु को ध्येय बनाना द्रव्य ध्येय है। भाव ध्येय का अर्थ है-ध्येय पर्याय के समान ध्यान का हो जाना, ध्यान का ध्येय के रूप में परिणमन हो जाना। जैसे-जैसे ध्यान परिपक्व बनेगा वैसे-वैसे ध्यान ध्येय के रूप में परिणत होता चला जाएगा। कुछ लोग कहते हैं-मुझे कृष्ण का दर्शन हो गया। कुछ लोग कहते हैं-मुझे राम का दर्शन हो गया। कुछ लोग कहते हैं-मुझे भिक्षु का दर्शन हो गया। जो अपना इष्ट है, उसका उसे दर्शन हो जाता है, साक्षात्कार हो जाता है। यह क्या है? सच है या झूठ? झूठ इसलिए नहीं मान सकते कि उसे साक्षात हुआ है, उसने देखा है। सच इसलिए नहीं मानते कि राम, कृष्ण आदि-आदि जो इष्ट हैं, वे कहां से आएंगे? एक उलझन पैदा हो जाती है। इस उलझन का समाधान यह है-ध्येय आता नहीं है। किन्तु ध्येय के आकार में अपनी मानसिक परिणति बन जाती है, ध्यान स्वयं ध्येय का रूप ले लेता है। उस अवस्था में ध्यान का पर्याय ध्येय के समान बन जाता है। परमाणु विज्ञान में इसे 'मेंटल प्रोजेक्शन' कहा जाता है। केवल आकार ही दिखाई नहीं देता, केवल व्यक्ति आता ही नहीं है, बात भी करता है। अपना इष्ट आ जाए तो वह काम भी कर देगा, बात भी करेगा। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत रामनाथ आदि के साथ इस प्रकार की बहुत सारी घटनाएं जुड़ी हुई हैं। इष्ट आ गया और संत ने अपना काम करा लिया। एक साधक कहता है-मेरा परमात्मा गाय दुहने बैठ गया। उसने गाय दुह दी। कोई साधक कहता है-मेरा इष्ट लड्डू ले आया। इस प्रकार बहुत बातें की जाती हैं। यह सारा मेंटल प्रोजेक्शन-मानसिक प्रक्षेपण है, ध्यान का ध्येय के रूप में परिणत हो जाना है। स्थिरता की स्थिति प्रश्न है-यह अवस्था कब बनती है? जब ध्यान स्थिरता को प्राप्त होता है, बहुत स्थिर बन जाता है तब उस अवस्था में ध्येय का रूप सामने स्पष्ट हो जाता है। ध्येय की सन्निधि न होने पर भी ध्येय सामने आलेखित सा प्रतीत होता है ध्याने हि विभ्रति स्थैर्य, ध्येयरूपं परिस्फुटम् । आलेखितमिवाभाति, ध्येयस्यासन्निधावपि ।। ध्येय हमारे सामने नहीं है किन्तु ध्येय का रूप सामने आता है और सारी क्रियाएं होने लग जाती हैं। जब तक ध्यान की स्थिरता नहीं आती, चंचलता समाप्त नहीं होती तब तक यह स्थिति नहीं बनती। जैसे ही चंचलता समाप्त हुई, एकाग्रता गहरी हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003158
Book TitleTab Hota Hai Dhyana ka Janma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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