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________________ तब होता है ध्यान का जन्म एक व्यक्ति ने कहा-मैं बिल्कुल नैतिकता का जीवन जीना चाहता हूं किन्तु जब यह देखता हूं-अनैतिकता से जीने वाला व्यक्ति बड़ी-बड़ी कोठियां खरीद लेता है, अनेक कारें उसके घर के सामने खड़ी रहती हैं, सारी सुविधाएं जुटाने में वह समर्थ है, तब मन ललचा जाता है। मन में विकल्प उठता है-नैतिक होने में क्या पड़ा है? अनैतिकता से काम करूं तो मैं भी इतना बड़ा आदमी बन जाऊंगा। यदि मैं नैतिकता को पकड़कर बैठा तो बैठा ही रह जाऊंगा। कहां से आएगा इतना धन? यह. दो विरोधी इच्छाओं का द्वन्द्व है। एक और इच्छा है-मैं नैतिक बनूं, दूसरी ओर इच्छा है-मैं धनवान बनूं, बड़े-बड़े मकानों का मालिक बनूं। यह मानसिक द्वन्द्व व्यक्ति को बहुत सताता है। भावनात्मक द्वन्द्व भी अनेक उपस्थित होते हैं। एक व्यक्ति ने कहा-मैं बिल्कुल शांत रहना चाहता हूं, क्रोध करना बिल्कुल नहीं चाहता किन्तु जब बच्चा कहना नहीं मानता तब इच्छा होती है कि उसके दो-चार चांटे मार दूं। एक ओर शांति की चाह, दूसरी ओर चांटा मारने की इच्छा-यह विरोधी द्वन्द्व भावना के स्तर पर उभरता रहता अद्वन्द्व कैसे बने प्रश्न है-इन द्वन्द्वों में जीने वाला व्यक्ति कैसे निर्द्वन्द्व होता है? उसके लिए कोरा ध्यान करना पर्याप्त नहीं है। ध्यान का पूरा परिवार सहयोगी बनेगा तब इन सारे द्वन्द्वों पर हम विजय पा सकेंगे अन्यथा सम्भव नहीं है। प्राकृतिक द्वन्द्व-सर्दी और गर्मी बहुत है। उन्हें सहन करना मुश्किल है। ध्यान करने बैठेंगे तो ध्यान सर्दी और गर्मी पर जाएगा, ध्यान आत्मा पर नहीं जाएगा, इन्द्रिय-विजय और मानसिक विजय पर नहीं जाएगा। इस द्वन्द्व पर विजय नहीं है तो ध्यान कहां से होगा? महर्षि पतंजलि ने आसन का उपयोग बताया-ततो द्वन्द्वानभिघात: । आसन के द्वारा द्वन्द्व का अभिघात होता है, द्वन्द्व व्यक्ति को आक्रांत नहीं कर सकता। व्यक्ति पहली बार ध्यान करने बैठता है तो ध्यान कम होता है, पैरों में दर्द हो रहा है, पैर शून्य हो रहे हैं, इसका अनुभव अधिक होता है। पैर ध्यान को पकड़ लेते हैं। आसन-विजय के द्वारा बैठने की अर्हता प्राप्त हो जाती है। व्यक्ति एक आसन में एक घंटा भी बैठ सकता है, दो घंटा भी बैठ सकता है। बैठने की योग्यता आ जाती है तो द्वन्द्व की पीड़ा समाप्त हो जाती है। सीधा बैठना, बिल्कुल तनावमुक्त होकर बैठना और दर्द का अनुभव न होना-इस स्थिति का निर्माण आसन की सिद्धि से संभव है। आसन नहीं सधा, ध्यान में बैठ गए और पीड़ा का अनुभव होता रहे तो फिर ध्यान पीड़ा में जाएगा, अन्य किसी बात में ध्यान नहीं जा सकेगा। द्वन्द्व के आघात को सहन कर लेना, द्वन्द्व पर विजय पा लेना बहुत अपेक्षित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003158
Book TitleTab Hota Hai Dhyana ka Janma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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