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ध्यान का परिवार
व्यक्ति यात्रा पर जाता है। वह कहीं धर्मशाला में ठहरना चाहता है तो प्रबन्धक पहला प्रश्न पूछता है-आप अकेले हैं या परिवार के साथ आए हैं? अकेला है तो एक छोटा-सा कुटीर पर्याप्त है। परिवार के साथ है तो अधिक स्थान चाहिए। अकेला अकेला होता है। परिवार से परिवृत दूसरी श्रेणी में चला जाता है। ध्यान करने वाले को भी सोचना चाहिए-मैं केवल ध्यान कर रहा हूं या ध्यान के परिवार को साथ में निमंत्रित कर रहा हूं। परिवार के साथ ध्यान आएगा तो अधिक स्थान देना पड़ेगा, पूरे शरीर में उसकी तैयारी करनी पड़ेगी। यदि अकेला ध्यान है तो केवल मानसिक तैयारी करनी होगी और संभवत: वह भी सम्यक् प्रकार से नहीं हो सकेगी। ध्यान का परिवार क्या है? आचार्य ने इस प्रश्न को समाहित करते हुए कहा
ध्यानस्यैव तपोयोगा: शेषा: परिकरा: मताः ।
ध्यानयोगे ततो यत्न: शश्वत्कार्यों मुमुक्षुभिः ।। जितना तपोयोग है, वह ध्यान का परिवार है। आसन, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता, इन्द्रिय विजय, आहार का संयम, स्वाध्याय, जप-ये सब ध्यान परिवार के सदस्य हैं। हम ध्यान के परिवार को छोड़कर अकेले ध्यान को बुलाएं तो वह आएगा नहीं और आएगा तो भी पूरा काम नहीं करेगा। परिवार के साथ ध्यान का जो प्रयोग होता है, वह पूरे जीवन को बदलने वाला होता है।
___ हम जिस दुनिया में जी रहे हैं, वह द्वंद्वात्मक दुनिया है। चार द्वंद्व हमारे सामने स्पष्ट हैं
१. शारीरिक द्वन्द्व-भूख और प्यास सताती है। २. प्राकृतिक द्वन्द्व-सर्दी और गर्मी की समस्या है। ३. मानसिक द्वन्द्व-दो विरोधी इच्छाएं तनाव पैदा कर देती हैं। ४. भावात्मक द्वन्द्व-दो विरोधी भावनाओं का द्वन्द्व ।
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