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तब होता है ध्यान का जन्म का प्रयोग प्रारम्भ कराना चाहिए। इससे वह कुछ बनेगा अन्यथा यह शिकायत बनी रहेगी-इतने ध्यान-शिविर कर लिए पर मन की चंचलता में कोई फर्क नहीं पड़ा, विचार बहुत आते हैं। इसका अर्थ है-ध्यान का प्रयोग सिद्ध नहीं हुआ। इस स्थिति में सबसे पहले जप का प्रयोग करना चाहिए, अनुप्रेक्षा का प्रयोग करना चाहिए। अनुप्रेक्षा और जप-ये स्वाध्याय के प्रकार हैं, स्वाध्याय और ध्यान दोनों का संगम होना चाहिए। स्वाध्याय के बाद ध्यान और ध्यान के बाद स्वाध्याय-'स्वाध्यायात् ध्यानमध्यास्तां, ध्यानात् स्वाध्यायमामनेत्।'
यह एक बहुत वैज्ञानिक दृष्टिकोण है इसीलिए जैन आगमों में धर्मध्यान और शुक्लध्यान का प्रतिपादन किया तो उसके साथ चार-चार अनुप्रेक्षाओं का निर्देश भी दिया गया। अनुप्रेक्षा और प्रेक्षा-दोनों साथ-साथ चलते हैं। पहले प्रेक्षा करें, फिर अनुप्रेक्षा। अनुप्रेक्षा के द्वारा मानसिक स्थिति का निर्माण होगा तो प्रेक्षा करने की गति बढ़ेगी। परालंबन से स्वरूपालंबन की ओर
शब्द में बड़ी शक्ति है परिवर्तन की। आज का व्यक्ति इस तथ्य को जानता है-स्थूल ध्वनि नहीं, सूक्ष्म ध्वनि-पराध्वनि (अल्ट्रा साउण्ड) कितना काम करती है। मंत्र में भी हम सूक्ष्म ध्वनि का उत्पादन करते हैं। मंत्र का अर्थ यह नहीं है कि बोल-बोल कर ही जप करें। पहले उच्चारण के साथ, फिर मध्यम उच्चारण के साथ और अन्त में मानसिक जप करते हैं तब उसमें एक लयबद्धता आती है, मन थमने लग जाता है ध्वनि और मन सध जाते हैं। वह स्थिति एकाग्रता के लिए आधारभूत बन जाती है पदार्थ और शरीर के आलंबन में व्यक्ति की एकाग्रता बढ़ जाती है, भिन्न का ध्यान परिपक्व हो जाता है और एक दिन वह अभिन्न का ध्यान शुरू करेगा तो आकुलता आ जाएगी। आकुलता से ध्यान में अवरोध आ जाएगा, आगे नहीं बढ़ा जा सकेगा। इसीलिए आवश्यक है मन आकुल-व्याकुल न हो, उसमें विक्षेप न हो। अनाकल भाव से हम ध्यान की साधना करें, परालम्बन से स्वरूपालंबन की ओर बढ़ें, ध्यान जीवन के लिए महान उपयोगी तत्त्व सिद्ध होगा, उलझनों और समस्याओं के बीहड़ वन में राजपथ के रूप में वरदायी होगा।
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