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________________ १३८ सुख और दुःख सुख और दुःख तनाव पैदा करने वाले हैं । सुख भी तनाव पैदा करता है और दुःख भी तनाव पैदा करता है । किसी व्यक्ति को सुख ज्यादा मिला, सुख की सामग्री ज्यादा मिली और जीवन में सुख का संवेदन ज्यादा हुआ तो भी तनाव पैदा हो जाता है । भोग भी तनाव पैदा करता है। ज्यादा सुख मिलता है तो मन में दूसरा विकल्प आता है । जो लोग हमेशा बड़े-बड़े मकानों में रहते हैं, उनके मन में आता है - चलो, जंगल की सैर करें। यह जंगलों की सैर क्यों ? इसलिए कि एक स्थिति में आदमी कभी प्रसन्न नहीं रहता । उसे यह पसन्द नहीं आता कि वह एक ही स्थिति में रहे। वह स्थिति को बदलते रहना चाहता है । जो प्रतिदिन बढ़िया-बढ़िया भोजन करता है, उसके मन में कभी-कभी बाजरे की रोटी और बाजरे का दलिया खाने की बात भी आ जाती है । इसलिए आती है कि आदमी बदलना चाहता है, एक रूप में रहना नहीं चाहता । ज्यादा सुख भी तनाव पैदा कर देता है और व्यक्ति कभी-कभी कह भी देता है कि चारों ओर सुख का वातावरण है, पदार्थ हैं। मुझे तो ऐसा जीवन है जहां न हों। बड़े-बड़े राजा और सम्राट् जो मुनि बने हैं, सुखों से ऊब कर बने हैं। उनके मन में विराग क्यों आया? इसलिए कि अतिभोग विराग पैदा करता है । इतना भोग लिया, इतनी सारी सामग्री पा ली फिर भी कहीं शांति नहीं मिली, इसलिए छोड़ने की बात मन में आई । अगर सुख तनाव पैदा नहीं करता तो कोई राजा या धनी आदमी आज तक संन्यासी नहीं बनता, मुनि नहीं बनता । यह अतिभाव तनाव भी पैदा करता है, वैराग्य का एक कारण भी बनता है। दुःख तो तनाव पैदा करता ही है। थोड़ा-सा दुःख आता है, दुःख की स्थिति आती है, आदमी तनाव से भर जाता है । जीवन और मरण तब होता है ध्यान का जन्म जीवन और मरण भी तनाव पैदा करता है । जब जीवन बहुत लम्बा हो जाता है तब कभी - कभी आदमी कहता है - मैं तो जीते-जीते थक गया, ऊब गया । प्रसिद्ध कहानी है। एक बुढ़िया ने कहा- मैं इतनी बूढ़ी हो गई, अभी तक बुलावा नहीं आया। उसने अपनी ग्रामीण भाषा में कहा- ऐसा लगता है कि रामजी मेरी चिट्ठी भूल गए। वह जीवन से ऊब गई थी और ऊब तनाव पैदा कर रही थी । मरण भी तनाव पैदा करता है । वह बुढ़िया जिस झोंपड़ी में रहती थी, एक दिन उसमें काला नाग निकला। नाग को देखते ही बुढ़िया चिल्लाई । बाहर भागी । उसने जोर से गांव वालों को पुकारा- आओ ! आओ ! सांप आ गया । भयंकर काला नाग है, इसे पकड़ो। लोग इकट्ठे हुए, बोले- बुढ़िया मां ! तुम रोज कहती थी - रामजी मेरी चिट्ठी भूल गए। मेरी चिट्ठी चूहे खा गए । आज तो सहज ही चिट्ठी आ गई थी। तुम भागी क्यों ? बुढ़िया ने मासूम स्वर में कहा - 'वीरां ! मरणो दोरो लागे ।' मरना बड़ा कठिन लगता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003158
Book TitleTab Hota Hai Dhyana ka Janma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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