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तब होता है ध्यान का जन्म बहुत बड़ा वहम हो गया।'
पास में बैठा व्यक्ति बोला-क्या हुआ?' 'मैंने सोचा कि मुझे कहीं लकवा तो नहीं हो गया?' कैसे हुआ यह वहम?'
'मैंने इतनी बार अपने पैर में चिकौटी काटी किन्तु कुछ भी पता नहीं चला। मैंने सोचा-इतनी शून्यता हो गई। कहीं लकवा तो नहीं हो गया?'
'भले आदमी! तुम तो मेरे पैर पर चूंटिया भर रहे थे, चिकौटी काट रहे थे। तुम्हें कैसे पता चलता? मैंने तो तुम्हें सज्जनतावश कुछ कहा नहीं।'
यह सुनकर उस व्यक्ति का सिर शर्म से नीचे झुक गया। ध्यान की उपलब्धि
आदमी निकम्मी प्रवृत्तियां बहुत करता है। वह आवश्यकतावश उन्हें नहीं करता किन्तु कुतूहलवश या व्यर्थ की मानसिकता से उन्हें संपादित करता है। ध्यान के द्वारा यह विवेक उपलब्ध हो सकता है-'आवश्यकतावश प्रवृत्ति करनी पड़ती है, उसके बिना काम नहीं चलता किन्तु कोई भी अनावश्यक प्रवृत्ति नहीं करूंगा।' यह ध्यान की बहुत बड़ी उपलब्धि है। वस्तुत: ध्यान को ठीक से समझा नहीं गया। ध्यान, धर्म या अध्यात्म में जाने का मतलब केवल निठल्ला हो जाना नहीं है। ध्यान में जाने का अर्थ है-आवश्यकता शेष रहे और अनावश्यकता सारी समाप्त हो जाए। यह एक नया जीवन दर्शन है-अनावश्यक कुछ भी न हो, न गति, न वाणी और न चिन्तन। कुछ व्यक्ति इतना सोचते हैं, दिन भर सोचते रहते हैं कि तनाव से भर जाते हैं, आधे पागल से हो जाते हैं। फिर वे इस भाषा में बोलते हैं-सोचने की इतनी आदत हो गई कि सोचना कभी बंद नहीं होता। कभी नींद में उठ जाते हैं, कभी ताला खोल लेते हैं, कभी कुछ कर लेते हैं। यह सारी स्थिति क्यों बनती है? बहुत सोचना भी बहुत खतरनाक होता है। आवश्यक चिन्तन, आवश्यक वाणी या आवश्यक प्रवृत्ति होनी चाहिए। प्रवृत्ति के साथ 'आवश्यक' का विवेक जुड़ा रहे, यह अपेक्षित है। मुझे प्रवृत्ति करनी है पर आवश्यक करनी है, अनावश्यक नहीं करनी है। ध्यान की अनेक उपलब्धियों में एक बड़ी उपलब्धि है कि अनावश्यक और आवश्यक का विवेक जाग जाए। यह जाग जाए तो पर्यावरण के प्रदूषण की चिन्ता करने की जरूरत ही न रहे। हावी है उपभोक्ता-संस्कृति
पर्यावरण प्रदूषण को मिटाने के लिए जितने साधन खोजे गए हैं, उनमें एक साधन है ध्यान । ध्यान के द्वारा सचाई का पता लगता है कि उपभोग की सीमा करना है। जीवन की यह बड़ी सचाई है। इस सचाई को समझना आज बहुत जरूरी
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