SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर्यावरण और ध्यान ११५ सध जाए कि जब आवश्यकता हो तब चंचलता आए। आवश्यकता सम्पन्न, स्थिरता आ जाए। जब वाणी की आवश्यकता हो, बोलें। जब आवश्यकता न हो, मौन हो जाएं। भगवान महावीर ने मौन किया। यह नहीं कि नहीं बोलना है किन्तु प्राय: मौन रहना है। विवेक हो आवश्यकता का __हम इसका हृदय समझें-जब जीवन की आवश्यकता है तब बोलें और जब आवश्यकता न हो, मौन हो जाएं। जब आवश्कता हो चलें, गति करें। जब आवश्यकता न रहे, स्थिर हो जाएं। एक मुनि अपने स्थान से बाहर जाता है तो उसे एक शब्द का उच्चारण करना होता है-'आवस्सई आवस्सई।' वह कहता है-मैं आवश्यकता के लिए जा रहा हूं। मुनि के लिए यह सामान्य विधान है कि बैठा रहे, चले नहीं। चलना अपवाद है। आवश्यकता होगी तो चलेगा और आवश्यकता सम्पन्न होते ही वापिस आ जाएगा। एक मुनि भिक्षा के लिए गया। वह जाते समय इस वाक्य का उच्चारण करेगा-आवस्सई आवस्सई। इसका अर्थ है-मैं आवश्यक कार्य के लिए बाहर जा रहा हूं और जैसे ही वापिस आएगा, कहेगा-निस्सही, निस्सही। इसका अर्थ है-कार्य सम्पन्न हो गया है, अब मैं आ गया हूं। वह जिस स्थान में ठहर गया, बिना प्रयोजन उस स्थान से बाहर नहीं जा सकता। यह एक स्थिति है-जहां जीवन की आवश्यकता, वहां प्रवृत्ति और जहां आवश्यकता नहीं, वहां निवृत्ति। ध्यान इसलिए आवश्यक है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन सधे। कोरा प्रवृत्ति का जीवन अच्छा नहीं है। ध्यान का मतलब है निवृत्ति। निवृत्ति करना अकर्मण्यता या निष्क्रियता में जाना है। लोग अकर्मण्यता को अच्छा भी बताते हैं और बुरा भी बताते हैं, किन्तु यह बात भी स्पष्ट समझ में आए-आवश्यकता के बिना प्रवृत्ति करना अच्छा नहीं है। यह प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन रहे तो मनुष्य जड़ता से दूर रह सकता है, दुःख से दूर रह सकता है, अनेक बुराइयों से बच सकता है। जो ज्यादा प्रवृत्ति करता है, वह इनसे बच नहीं सकता। प्रवृत्ति करते-करते मानसिकता ऐसी बन जाती है कि व्यक्ति खाली बैठा नहीं रह सकता। यदि और कोई काम नहीं है तो बैठा-बैठा कंकर फेंकेगा अथवा कुछ न कुछ करता रहेगा। कैसे हुआ वहम एक भोज में बहुत सारे लोग भोजन कर रहे थे। भोजन सम्पन्न हुआ। उसके बाद गोष्ठी चली और कार्यक्रम सम्पन्न हो गया। एक व्यक्ति बोला-'मुझे तो आज एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003158
Book TitleTab Hota Hai Dhyana ka Janma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy