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________________ ११४ तब होता है ध्यान का जन्म सत्य के साक्षात्कार के बाद उन्होंने कहा था-पृथ्वी, पानी, अग्नि, वनस्पति-इन सबकी स्वतंत्र सत्ता है। ये किसी के लिए नहीं बने हैं, मनुष्य के खाने के लिए नहीं बने हैं। मनुष्य इन्हें खाता चला जाए, इसलिए नहीं बने हैं। 'सबकी स्वतंत्र सत्ता है' यह सचाई समझ में आ जाए तो इन सबके प्रति इतना अतिक्रमण और अत्याचार नहीं हो सकता। आज बहुत अतिक्रमण होता है। मनुष्य चाहे जैसे उनके साथ व्यवहार करता है। क्या मनुष्य ने कभी ध्यान दिया कि आवश्यकता से ज्यादा वनस्पति को नहीं काटना चाहिए? आवश्यक काम करने के लिए कुछ नीम की पत्तियां तोड़नी हैं तो पूरी शाखा क्यों तोड़ें? क्या यह उन जीवों के प्रति अतिक्रमण नहीं है, अन्याय नहीं है? क्या मनुष्य ने यह सोचा-पानी से हाथ धोना है, एक गिलास पानी से काम चल सकता है, पर वहां कई लोटे पानी क्यों गंवा देते हैं? स्नान करने में एक बाल्टी पर्याप्त है फिर भी नल को खोलकर घंटों तक अनावश्यक पानी क्यों बहा देते हैं? क्या यह अतिक्रमण नहीं है? यदि ये प्रश्न मनुष्य के मस्तिष्क में उभरने लगें तो क्या पर्यावरण की समस्या के समाधान की दिशा में प्रस्थान न हो जाए? जीव संयम : अजीव संयम यह सूत्र हमारे ध्यान में रहे-सबकी स्वतंत्र सत्ता है, केवल चेतन पदार्थ की नहीं, अचेतन पदार्थ की भी स्वतंत्र सत्ता है। जितनी स्वतंत्र सत्ता चेतन की है उतनी ही अचेतन पदार्थ की है। भगवान महावीर ने संयम के सतरह प्रकार बतलाए। उनमें दो प्रकार बड़े महत्त्वपूर्ण हैं-जीव संयम और अजीव संयम। यदि जीव के प्रति संयम करना है तो अजीव के प्रति भी संयम करना है। बिना मतलब एक ईंट के टुकड़े को, एक मिट्टी के ढेले को इधर से उधर नहीं करना है। यह है पर्यावरण का वैज्ञानिक आधार या आध्यात्मिक सूत्र। बिना ध्यान के यह सचाई सामने नहीं आती। चंचल चित्त वाला व्यक्ति इस सचाई तक कैसे पहुंच पाएगा? सत्य कहां है? वह कहीं बाहर नहीं है। हमारी सारी चेतना, आत्मा इसी शरीर के भीतर है। सत्य तो यहीं है। पता तो यहीं से चलेगा, पर जब तक चंचलता की बाधा है तब तक पता नहीं चलेगा। जैसे-जैसे चंचलता की बाधा मिटेगी, सत्य स्वयं बोलने लग जाएगा। सत्य के साक्षात्कार में सबसे बड़ी बाधा है-चंचलता। यदि चंचलता कम हो जाए तो सत्य के साक्षात्कार की दिशा उद्घाटित हो जाए। चंचलता को एकदम तो नहीं मिटाया जा सकता पर उसकी मात्रा इतनी कम हो जाए कि चंचलता केवल आवश्यकता जनित ही रहे। जहां आवश्यकता समाप्त हो जाए, वहां एकाग्रता हो जाए। इसका तात्पर्य है-ध्यान दिन में कोई आधा घण्टा, एक घण्टा बैठकर करने का नहीं है। ध्यान इतना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003158
Book TitleTab Hota Hai Dhyana ka Janma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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