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________________ ध्यान और मस्तिष्कीय प्रशिक्षण १०५ आग्रह होता है वहां पकड़ इतनी मजबूत होती है कि व्यक्ति टस से मस नहीं होता । वह टूट भले ही जाए, झुकता नहीं है । मध्यस्थ ने कहा- 'यदि तुम उसे नहीं छोड़ना चाहते तो मैं तुम्हें दे दूंगा पर शर्त यह है कि तुम इस अंगूठी को न पहनोगे और न किसी को दिखाओगे।' बड़े भाई ने इस शर्त को स्वीकार कर लिया- मुझे अंगूठी से मतलब है । वह घर में होनी चाहिए। उसे न पहनूंगा और न दिखाऊंगा । मध्यस्थ ने अपनी जेब से एक अंगूठी निकाली और उसे दे दी। बड़ा भाई खुश हो गया। उसने कहा- मुझे न्याय मिल गया। यह स्वार्थ का दृष्टिकोण है- मुझे मिल गई तो न्याय हो गया और छोटे भाई को मिल जाती तो अन्याय हो जाता । चार घंटे बाद मध्यस्थ ने छोटे भाई को बुलाया । उसे समझाते हुए कहा- देखो! एक अंगूठी के लिए झगड़ना अच्छा नहीं लगता। वह तुम्हारा बड़ा भाई है । तुम्हें उसका सम्मान करना चाहिए। वह अंगूठी तुम्हारे पास रहे या तुम्हारे बड़े भाई के पास रहे, एक ही तो बात है ।' छोटा भाई बोला- 'आपको उपदेश देने के लिए मध्यस्थ नहीं बनाया है । उपदेश देना किसी धर्मगुरु का काम हो सकता है, आपका नहीं। मुझे अंगूठी छोड़ने की सलाह नहीं, अंगूठी चाहिए ।' मध्यस्थ ने मृदुस्वर में कहा- 'भाई ! तुम्हारा इतना आग्रह है तो मैं अंगूठी तुम्हें दे देता हूं किन्तु न उसे पहनना है और न किसी को दिखाना है ।' छोटे भाई ने कहा- 'मैं अंगूठी के विषय में कभी चर्चा ही नहीं करूंगा । ' मध्यस्थ ने दूसरी अंगूठी छोटे भाई को दे दी । दोनों भाई खुश हो गए। दोनों यह सोच रहे हैं कि अंगूठी दूसरे भाई को नहीं मिली। अंगूठी की उपलब्धि और इस चिन्तन ने दोनों को खुश बना दिया । यथार्थ दोनों से अज्ञात रह गया किन्तु एक जटिल समस्या का समाधान हो गया । अचिन्तन की भूमिका आदमी की सूझबूझ और चिन्तन से ऐसा मार्ग निकलता है कि समस्या समाहित हो जाती है और चिन्तनशून्य व्यक्ति समस्या को उलझा देता है, उसका कभी समाधान नहीं कर पाता । चिन्तन से अगली भूमिका है अचिन्तन की, ध्यान की । ध्यान की अवस्था में जिन सचाइयों का पता चलता है, चिन्तन से भी कभी - कभी उन सचाइयों का पता नहीं चलता । अचिन्तन की अवस्था में ऐसे गूढ़ रहस्यों का पता चलता है, जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकतीं | विज्ञान के बहुत सारे आविष्कार अचिन्तन की अवस्था में हुए हैं 1 मैं यह मानता हूं-एक वैज्ञानिक को अवश्य ही ध्यानी होना होता है जो ध्यानी नहीं है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003158
Book TitleTab Hota Hai Dhyana ka Janma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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