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स्वतंत्र भी बंधा हुआ है किया, बाह्य जगत् में होने वाले मुख्य मानवीय व्यवहार का अध्ययन किया। यंग ने आन्तरिक जगत् का अध्ययन किया । उनके जो साइकोलॉजिकल प्वाइट्स हैं, उनमें अन्तर्मुखी और बाह्यमुखी-दोनों व्यक्तित्व मिलते हैं। आन्तरिक अध्ययन का विषय है-व्यक्ति में क्या-क्या अभिव्यक्तियां होती हैं, व्यक्ति कैसे-कैसे सोचता है और चलता है ? बाहरी जगत् में उसका मानवीय व्यवहार कैसा होता है ? हमारा अन्तर् का जगत्, अचेतन का जगत् बहुत बड़ा है । वह अंधकारमय और अज्ञात है । अचेतन को समझने के लिए कर्मशरीर को समझना जरूरी है । स्थूल शरीर से सूक्ष्म है-तैजस शरीर। उससे भी सूक्ष्म है-कर्म-शरीर। यह कर्म-शरीर है सूक्ष्मतर। यह हमारा अचेतन का स्तर है। बाहर से जो भी लिया जाता है, वह सारा कर्म-शरीर में चला जाता है। ग्रहण करने का कारण है—कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ इनकी प्रेरणा से प्रेरित होकर जीव कर्म के पुद्गलों का ग्रहण करता है। वे कर्म के परमाणु भीतर जाकर भंडार बन जाते हैं। फिर वे पकते हैं और पकने के बाद फल देते हैं । मनोविज्ञान : चार क्रिपाएं
मनोविज्ञान में चार क्रियाएं मानी गई-संवेदन, चिंतन, भावना और अन्तर्दृष्टि । बाह्य जगत् में चार क्रियाएं हो रही हैं। प्रश्न है- इनका स्रोत कहां है ? स्रोत का पता नहीं चलता है तो बड़ा भ्रम पैदा हो जाता है। हम केवल शरीर को ही न देखें, वाणी और संवेदन को ही न देखें, हम उसे गहराई से देखें, जहां से चिन्तन, संवेदनाएं और भावनाएं आ रही हैं । वह है कर्म-शरीर-अचेतन जगत् । हम कर्म-शरीर की प्रक्रिया को समझे, उसका अध्ययन करें । कर्म-शरीर क्या
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