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________________ ८६४ जम्बूद्वीपप्राप्ति संपरिवुडे दिव्धतुडिय जाव आपूरेते चेव विजयखंधावारणिवेसं मझ मज्झेणं गिगन्छ। दाहिणपरवत्यिम दिसिं विगोयं रायहाणि अभिमुहे पयाए यावि होत्था' तद् दिव्यं चक्ररत्नम् अन्तरिक्षप्रतिपन्नम् गगनतलस्थितम्, यक्षसहस्रसंपरिवृत्तम् यक्षसहस्त्रः युक्तम्, दिव्य त्रुटित यावत् अत्र यावत्पदेन दिव्यत्रुटिततलतालघनमृदङ्गपटुवादितदिव्यरवेण वाद्यविशेषमन्निनादेन शब्दबाहुल्येन गगनतलमिति ग्राह्यम् आपूरयदिव विन पस्कन्धावारनिवेशं मध्यपथ्येन-विजयस्कन्धावारस्य मध्यभागेन निर्गच्छति दक्षिण पाश्चात्यां दक्षिणपश्चिमां दिशं नैऋतींदिशं प्रत विनीता राजधानी लक्षीकृत्य अभिमुखं प्रयातं चाप्यभवत् आसीत् 'तए णं से भरहे राया जाव पासइ, पासित्ता हहतुट्ठजाव काटुंबिय पुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेकं जाव पच्चविणंति' ततः चक्ररत्नप्रस्थानानन्तरं खलु स भरती महाराजा यावत् पश्यति दृष्ट्वा हृष्टतुष्ट यावत् स राजा परखण्डाधिपतिर्भरतः कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति आयति शब्दयित्वा आहूय एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् उक्तवान् क्षिप्रमेव शीघ्रमेव भो देवानुप्रिया ! आभिषेक्यम् अभिषेकयोग्यं यावत्प्रत्यर्पयन्ति । अथ प्रथम यावत्पदात् एकसमय आयुधगृहशाला से बाहर निकला और (पडिणिक्वमित्ता) निकल कर (अंतलिक्खपडिवण्णे जक्स्व सहस्स संगरिवुडे दिव्यतुडिय जाव आते चेव विनयक्खंधावारनिवेसं मज्झं मझेणं निगच्छइ दाहिणपञ्चस्थिमं दिसि विणोयं रायहाणिं अभिमुहे पवाए यावि होत्था) आकाश मार्ग से जाता हुआ वह चक्ररत्न जो कि एक हजार यक्षों से सुरक्षित था । दिव्यत्रुटित यावत् रव से आकाश मंडल को व्याप्त करता विजयस्कन्धाबार निवेश के ठीक बीच में से होकर निकला और नैऋती दिशा तरफ जो विनीता नामकी राजधानी है उस ओर चल दिया (तएणं से भरहेराया जाव पासइ) भरत नरेश ने विनीता राजधानी की ओर चक्ररत्न को जाते हुए जब देखा तो (पासित्ता हट्ठ तुट्ठ जाव कोडुंबिय पुरिसे सद्दावेइ) देखकर उसको हर्षका ठिकाना नहीं रहा उसने उसी वख्त कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया (सहावित्ता एवं वयासी) और बुलाकर उनसे ऐसा कहा (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं जाव पच्चप्पिणति) हे देवानुप्रियो. समये भायुधशाणामाथी बहा२ नीयु भने ( पडिणिक्खमित्ता) जीन (अंत लिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिबुडे दिव्वतुडिय जाव आपूरेंते चेव विजयखंधा वारनिवेस मज्झ मज्झेणं निगच्छह दाहिणपच्चत्थिमं दिसि विणायं रायहाणि अभिमुहे पयाए यावि होत्था) शमाथी प्रयाय ४२तुतेयत्न २ मे सस यक्षो થી સુરક્ષિત હતું–દિવ્ય–ત્રુટિત યાવત્ રવથી આકાશ મંડળ ને વ્યાપ્ત કરતું વિજ્ય સ્કંધાવાર નિવેશની ઠીક મધ્યમાંથી પસાર થઇ ને નીકળ્યું. અને નૈઋત્ય દિશા તરફ વિનીતા नाम शबानी छ, ते त२५ रवाना थयु (तपण से भरहे राया जाव पासइ भरत नरेश विनीत पानी त२३ २४२त्नने तु युत ( पासित्ता हट्ट-तुट्ट जाव कोडंबिय पुरिसे सदावेद ) त ५२म त यया तभर तरत होटुमि पुरुषोन मेय (सदावित्ता एवं वयासी ) मन मावीन तमन भरत नरेश मा प्रमाणे ह्यु -(खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा आभिसे क्कं हत्थीरयणं जाव पच्चपिएणति) 3 हेवानुप्रियो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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