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________________ प्रकाशिका टीका तृ०३ वक्षस्कार-सू० २७ दक्षिणार्द्धगतभरतकार्यवर्णनम् ८६१ तत्र एते नवनिधयः प्रभूतधनरत्नसंचयसमृद्धा ये भरताधिपानां षट्खण्डभरतक्षेत्राधिपानां चक्रवर्तिनः वशमुपगच्छन्ति वश्यतां यान्ति, एतेन वासुदेवानां चक्रवर्तित्वेऽ. पि एतद्विशेषणप्रतिषेधो भवति ॥१३॥ अथ षट्खण्डदत्तदृष्टि भरतो यथोत्सहते तथा प्राह-'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से भरहे राया अट्ठमभत्तसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्वमइ' ततः खलुस श्रीमद्भरतो महाराजा अष्टमभक्त परिणमति-परिपूर्णे जायमाने सति पौषधशालातः प्रतिनिष्क्रामति निर्गच्छति एवंमज्जनघरप्पवेसो जाव सेणिप्पसे णि सदावणया जाव णिहिरयणाणं अट्ठाहियं महामहिमं करेइ' एवं मन्ननगृहप्रवेशः मज्जनगृहे स्नानार्थ प्रवेशो यस्य स तथा यावत्पादात् कृतस्नानः ततो निर्गच्छतीत्यादि बोध्यम् ततः श्रेणिप्रश्रेणिशब्दापनता श्रेणिप्रश्रेण्यः आह्वानं यावत् निधिरत्नानां प्रोतनवानाम् अष्टाहिका महोमहिमां एए णवणिहिरयणा पभूय धणरयणसमिद्धा । जेव समुवगच्छंति भरहाविव चक्कवट्टीणं ॥१३॥ इन नवनिधियों के प्रभाव से इनके अधिपति को अपार धन रत्नादिरूप समृद्धि का संचय होता रहता है. क्योंकि ये निधियाँ स्वयं अपार धन रत्नादि संचय से समृद्ध होती हैं । ये भरतक्षेत्र के छह खंडों का विजय करनेवाले चक्रवर्तियों के ही वश में रहती है इस तहर वासुदेव भी अर्धचक्री होते हैं. परन्तु वे उनके वश में नहीं होती हैं । क्योंकि ये तो पूर्ण चक्रवर्ती राजा के ही वश में रहती । (तएणं से भरहे राया अद्रमभत्तसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिस्वमइ) जब भरत नरेश को अदम भक्त की तपस्या परिपूर्ण हो गइ तब वह पौषधशाला से बाहिर निकला (एवं मज्जनघरप्पवेसो जाव सेणिप्पसेणो सद्दावेइ हाया जाव णिहिरयणाणं अट्ठाहियं महामहिमं करेह ) और निकल कर वह स्नान घर में गया-वहाँ अच्छी तरह से स्नान किया फिर वहां से निकल कर वह भोजनशाला में गया इत्यादि रूप से सब कथन पूर्वोक्त जैसा ही यहाँ पर कह लेना चाहिये इसकेबाद उसने श्रेणि प्रश्रेणिजनो को बुलाया और निधिरत्नों की वश्यता के उपलक्ष्य पए णवर्णािहरयणा पभूयधणरयणसमिद्धा । जेव समुवगच्छंति भरहाविव चक्कवट्टीणं ॥१३॥ એ નવનિધિઓના પ્રભાવથી એમના અધિપતિને અપરિમિત ધન-રત્નાદિ રૂપ સમૃદ્ધિનું સંચયન થતું રહે છે. કેમકે એ નિધિએ જાતે અપારધન-રતનાદિ સંચયથી સમૃદ્ધ હોય છે. એ ભરતક્ષેત્રનાં ૬ ખંડે ઉપર વિજય મેળવનાર ચક્રવતીઓના વશમાં જ રહે છે. આ પ્રમાણે વાસુદેવપણુ અર્ધચક્રી હોય છે, પણ એ તેમના વશમાં રહેતી નથી. કેમકે એઓ પૂર્ણ ५वती । शमा १ २७ छे. ( तपणं से भरहे राया अहमभत्तं सि परिणममोणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्ख मह ) ४ारे भरतनरेशनी ममतनी तपस्या पर यह म त्यारे त पौषधशाणामांथा बहार नाय! (एवं मज्जनधरपवेसो जाब सेणिप्पसेणी सहावेइ हाया जाव णिहिरयणाण अठ्ठाहियं महामहिम करेइ) मने नीजीन स्नानઘરમાં ગયા. ત્યાં તેણે સારી રીતે સ્નાન કર્યું પછી ત્યાંથી નીકળી ને તે ભેજનશાળામાં ગયા ઇત્યાદિ રૂપથી બધું કરનpક્ત જેવું જ અહીં પણ અધ્યાહુત કરી લેવું જોઈએ, ત્યારબાદ --- - -- -- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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