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________________ ७५८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पमानम् उपमावर्जितम् अन्यसरशत्वाभावात् 'तं च पुणो' तच्च पुनर्बहुगुणमस्तीति शेषः कीदृशम् ! 'वंसरुक्खसिंगहिदंतकालायस विपुललोहदंडकवरवइरभेदकं' वंशवृक्षशृङ्गास्थिदन्तकालायस विपुललोहदण्डकवरवज्रभेदकम्, तत्र वंशाः प्रसिद्धाः रुक्षाः- वृक्षाः शृङ्गाणि महिषादीनाम् अस्थीनि प्रसिद्धानि दन्ताः हस्त्यादीनां कालायसं लोहं विपुललोहदण्डकश्च वरवज्र होरकजातीयं तेषां मेदकम् अत्र वज्रकथनेन दुर्भेद्यानामपि भेदकत्वमुक्तम् किंबहुना ? 'जाव सम्वत्थ अप्पडिहयं' यावत्सर्वत्राप्रतिहतम् दुर्भदेऽपि वस्तुनि अमोघशक्तिकमित्यर्थः किं पुण देहेसु जंगमाणं किं पुनजङ्गमानां चराणां पशुमनुष्यादीनां देहेषु, अत्र यावच्छन्दो न सङ्ग्राहकः किन्तु भेदकशक्ति प्रकर्पोक्तयेऽवधि सूचनार्थम् अथ तस्य मानमाह- 'पण्णासंगुलदीहो सोलससे अंगुलाई विच्छिण्णो' पञ्चाशदङ्गुलानि दीर्थों यः षोडशाङ्गुलानि विस्तीर्णः तथा 'अद्धंगुलसोणीको' अ गुलश्रोणिकः तत्र मणोवमाण ) संसार में यह अनुमेय माना गया हैं । क्योंकि इसके जैसे और कोई पदार्थ नहीं है (तंच पुणो वंसरुक्खसिंगट्टि दंतकालायस विपुल लोहदंड कवरवइरभेद)यह वंश-वांस, रुक्खवृक्ष-शृंग-महिषादिको के सींग, हड्डियां, हाथो आदिकोंके दांत, कालायस इस्पात जैसा लोहा, और वर वज्र इन सब को भेद देता है। वज्र के कथन से यहां यह प्रगट किया गया है कि यह दुर्मेध पदार्थों का भी भेदक होता है । और तो क्या-(जाव सव्वत्थ अप्पहिहयं) यावत् यह सर्वत्र अप्रतिहत होता हैं। इस दुर्भेष वस्तु के भेद में भी इसकी शक्ति जब अमोघ होती है तो (किंपुण देहेसु जंगमाणं) फिर जंगम जोवों के देह के विदारण करने में तो इसको बात हो क्या कहनी यह तो उन्हें खेत की मूली की तरह हो काट देता है। यहां यावत्पद संग्राहक नहीं है किन्तु मेदक शक्ति को प्रकर्षता की अवधि का सूचक है। (पण्णासंगुलदोहो सोलस अंगुलाई विच्छिण्णो) यह असिरत्न ५० पचास अंगुल को लम्बा होता है और १६ सोलह अंगुल का चौड़ा होता है । ( अद्धंगुलसेणीको) तथा आधे अंगुल की aहिन्य असिन तु. (लोगे अणोवमाण) संसारमा से अनुपमेय मानवामा मावत छम सेना वा अन्य पार्थ छ । नहि. (तं च पुणो वसरुखसिंगट्टिदंत कालायसविपुललोहदंडकवरवहरभेदक) मे वश-पांस, ३४५-वृक्ष, श्रृंग-महिपाहिहाना શિંગ, અસ્થિ-હાથી વગેરેના દાંત, કાલાયસ-ઈસ્માત જેવું લેખંડ અને વરવા એ સન ભેદન કરે છે. વાના કથનથી એ આ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે કે એ દર્ભેદ્ય पहायान ५ दश छे. भने भातशु (जाव सव्वत्थ अप्पडिहयं) यावत् से सत्र અપ્રતિહત હોય છે. આ પ્રમાણે દુર્ભે વસ્તુના ભેદનમાં પણ એની શક્તિ જ્યારે અમેઘ डाय छत (किं पुण देहेसु जंगमाणं) पछी गम ना हेडन विही पाम तो વાત જ શી કહેવી. એ તે તેમને સહેજમાંજ કાપી નાખે છે અહીં યાવત પદ્ધ સંગ્રાહક नयी ५AR शतिनी तानी अवधि सूयवे छे. (पण्णासंगुलदीहो सोलसअंगुलाई विच्छिण्णो) मे असिरत्न ५० ५यास भya iभु य छे. अने ११ मन पाहाय छ (अद्धगुठसेणोका) तथा अर्धा की गनी MM 34 छ (जेट्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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