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________________ 982 प्रज्ञप्ति तेषु उक्त रत्नविशेषु प्रतिबिम्बितानि अनेकमुखमण्डलानि तैः रचितं सुशोभितम् पुनः कीदृशमरत्नम् ' आविद्धमाणिक्कमुत्तगविभूसिय' आविद्धमाणिक्य सूत्रकविभूषितम् तत्र आविद्धमाणिक्यं वत्रकम् अमुख भूषण विशेषस्तेन विभूषितं शोभितम् 'कणगमयपउमसुकयतिलकं' कनकमयपद्मसुकृततिलकम् तत्र कनकमयपद्येन सुष्ठुकृतं तिलकं यस्य तत्तथा 'देवमइविकपिअं' देवमतिविकल्पितम् तत्र देवमत्या देवचातुर्येण विविधप्रकारेण कल्पितं सृष्टम् 'सुरवरिंदवाहण जोग्गावयं' सुरवरेन्द्रवाहनयोग्यवज्रम्, तत्र सुरवरेन्द्रवाहनम् उच्चैः श्रवा इन्द्रस्य अश्वः तस्य योग्यः मण्डलीकरणाभ्यासः गोळाकार भ्रमण रूपगमनं तस्येतिभावः तस्याः वज्रम् प्रापकम् व्रजगतावित्यस्माद् च प्रत्ययः तथाः 'सुरूवं' सुरूपम् - सुन्दरम् पुनः कीदृशम् ' दूइज्जमाणपंचचारुचामरामेळगे धरेंत' द्रवत् पश्चचारुचामरमेकं धरत् तत्र द्रवन्ति इतस्ततो दोलायमानानि सहज चश्वलाङ्गत्वाद् गलभामौलिकर्णद्वयमूलनिवेशितत्वेन पश्चसङ्क्षयकानि यानि चारुणि चामराणि तेषां मेलकः एकस्मिन् मूर्द्धनिसङ्गमस्तं धरद् वहत् मूले चामरा इत्यत्र स्त्रीनिर्देशः समयसिद्ध एव अथवा - इन पूर्वोक्त स्थापित कर्केतनादि रत्नों में जिसके अनेक : मुखमंडल प्रतिविम्बित हो रहे हैं, इससे जो बड़ा सुहावना लग रहा हैं । ( आविद्ध माणिक्कसुत्तगविभूसियं ) जिसमें माणिक्य लगे हुए है ऐसे सूत्रक अश्वमुख भूषणविशेष से जो विभूषित है ( कणगामय पउमसुकयतिलकं ) कनकमयपद्म से जिसके मुख ऊपर अच्छी तरह से तिलक किया गया हैं ( देवमइविकप्पियं ) देवोंने अपनी बुद्धि की चतुराई से जिसकी रचना को है ( सुरवरिंदवाहणजग्गावयं सुरूवं दूइज्माण पंचचारुचामरामेलगं घरेंतं ) सुरेन्द्र इन्द्र का जो वाहनभूत अश्व है जिसका कि नाम उच्चैश्रवा है । उसकी जो योग्या - मण्डलाकाररूप भ्रमण - गोलाकार भ्रमणरूप गमन - उस गमन को यह प्राप्त करनेवाला है । अर्थात् इसकी चाल इन्द्र के घोड़ा जैसी है । यह बड़ा सुन्दर है-अच्छे रूप वाला है । पांच स्थानों में गले में भाल में, मौलि में, और दोनों कानों में निवेशित हलते हुए पांच सुन्दर चामरों के मिलाप को जो मस्तक पर धारण करता है । यहां मूल में चामर शब्द को जो बीलिङ्ग रूप से कहा गया है वह स्व समय में इसकी ऐसी અનેક સુખમ’ડલા પ્રતિષિ`ખિત થઈ રહ્યા છે, એથી તે અતીવ સેાહામણા લાગી રહ્યો છે. (विद्धमाणिक्क सुत्त गविभूसियं मां भाषिभ्य भडित छे, सेवा सूत्र अश्वमुख भूषण विशेष- थी ? विभूषित छे. ( कणगामय पउमलुकयतिलकं ) उनप्रभय पद्मथी भेना मुख सुपर सारी रीतेति वामां आवे छे. (देवमहविकप्पियं ) देवी पोतानी युद्धनी माथी लेनी रचना हरी छे. (सुरवरिदवाहणजग्गा वयं सुरुवं दूइज्जमाण पंच चारु चामरामेलगं धरतं) सुरेन्द्र - इन्द्रन ने वाहनभूत अश्व छे, मेनुं नाम हुन्छः श्रवा - તેની જે ચેાગ્યા મંડળાકાર રૂપ ભ્રમણ- ગેાળાકાર ભ્રમણુ રૂપ ગમન- તે ગમનને એ પ્રાસ કરનાર છે. એટલે કે એ અશ્વની ચાલ ઇન્દ્રના અન્ય જેવી છે. એ અશ્વ અતીવ સુદર છે. સુંદર રૂપવાળા છે. પાંચ સ્થાનામાં-ગળામાં, ભાલમાં,મૌલિમાં અને અન્ને કાનેામા નિવે શિત હાલતા પાંચ સુંદર ચામરૈના મિલાપને જે મસ્તક ઉપર પારણુ કરે છે. અહી' મૂળમાં Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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