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________________ and.-.. -RAPARINnAPA ७२६ जम्बूदीपप्रज्ञाप्तिसूत्रे कलरवेण समुद्ररवं भूतामिव प्राप्तामिव गुहामितिगम्यम् कुर्वन् कुर्वन् सिंधूए महाणईए पुरच्छिमिल्लेणं कूडेणं जेणेव उम्मग्गजला महाणई तेणेव उवागच्छइ' सिन्ध्वा महानद्याःपौरस्त्ये क्रूले पूर्वतटे उभयत्र णं शब्दो वाक्यालङ्कारे अयमर्थः तमिस्राया अधो भागे वहन्ती सिन्धुस्तमिस्रा पूर्वकटकमवधीकृत्यैवेति, उन्मग्नाऽपि पूर्वकटकान्निर्गताऽस्तीत्युभयोरेकस्थानतासूचनार्थकमिदं सूत्रम्, यत्रैवोन्मग्नजला महानदी तत्रैव उपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'वद्धइरयणं सदावेइ' वर्द्धकिरत्नं शब्दयति आह्वयति 'सदावित्ता एवं वयासी' शब्दयित्वा आहूय, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् उक्तवान् किमवादीत् इत्याह-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! उम्मग्गणिमग्गनलासु महाणइसु अणेगखंभसयसण्णिविठे अयलमकंपे अभेजकवए सालंबणवाहाए सबरयणामए मुहसंकमे करेह' क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय ! उन्मग्ननिमग्नजलयो महानद्योः अनेकस्तम्भशतसन्निणाय जाव करेमाणे २ सिधूए महाणईए पुरच्छिमिल्लेणं डेणं जेणेव उम्मग्गजला महाणई तेणेव उवाग छइ ) जोर-२ से सेनाजनके एवं साथ में चलनेवाले राजा महाराजाओं के सिंहनाद के जैसे बोल से भव्यक्तध्वनि से- एवं कल कल रव से समुद्र के जैसे रख को प्राप्त हुई न हो मानो ऐसो गुहा को करता करता सिंधु महानदी के पूर्व तट पर जहां उन्माना नदी थी वहां पर आया ( उवागच्छित्ता वद्धहरयणं महावेह) वहां आकर के उसने वर्द्धकिरत्न को बुलाया तमिस्रागुहा के अधोभाग में तमिस्रा के पूर्व कटक की अवधि करके ही सिन्धु महानदी वहती है तथा उन्मग्ना महानदी भी तमिस्रा के पूर्व तट से निकलो है इसलिये दोनों नदियों का समागम यहाँ हो जाता है ( सहावित्ता एवं वयाप्ती ) वर्द्धको रत्न को बुला करके उसमे ऐसा कहा (खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! उम्म गणिमग्गजलासु महाणईसु अणेगखभसय सण्णिविटे भयलमकंपे अभेनकवए सालवणावाहाए सव्वरयणामए सुहस कमे करेह ) हे देवानुप्रिय! तुम ही उन्मग्ना और निमग्ना महानदियों के ऊपर अनेक सैकड़ों खंभो से युक्त, अचल, २ (महया उक्किट्ठ सीहणाय जाव करेमाणे २ मिधूए महाणईए पुरच्छिमिल्लेणं कूडेणं जेणे व उम्मग्ग जला महाणई तेणेव उवागच्छइ) सेना भर स महारानी तीन यथा થતા સિંહનાદ જેવા અવ્યક્ત દવનિથી તથા કલરવથી સમુદ્રના જેવા વિનિને પ્રાપ્ત થયેલ ન હોય એવી ગુફાને મુખરિત–વનિત કરતો તે રાજા સિંધુ મહાનદીના પૂર્વ તટ ઉપર કે या भानही ती त्या भाव्या. (उवागच्छित्ता वद्धहरयणं सहावेइ) त्या भावीन तय વહરિનને (સુથાર) બેલા તમિસા ગુફાના અધે ભાગમાં તમિસાના પૂર્વકટકની અવધિ કરી ને જ સિંધુ મહાનદી વહે છે. તેમજ ઉમેગ્ના મહાનદી પણ તમન્નાના પૂર્વ તટથી નીકળી थे. मेथी बन्न नही मानी मोसमागम तय छे. (सदावित्ता एवं वयासो) पहिरन नवीन त रातो तेने 24 प्रमाणे यु-(खिप्पामेव भो देवाणुपिया! उम्मग्गणिमग्गजलासु महाणईसु अणेगखंभसयसण्णिविढे अयलमकंपे अमेज्जकवर सालंवणवाहाए सव्वरयणामप सुहसंकमे करेह) देवानुप्रिय! तमे श मन अन निभाना नहीनी ઉપર અનેક હજાર સતાવાળા. અચલ અક૫ તેમજ દઢ કવચની જેમ અભેદ્ય એવા બે Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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