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________________ प्रकाशिका टीका तृ० ३ वक्षस्कारः सू०१४ तमिस्रागुहाद्वारोद्घाटननिरूपणम् कलशहस्तगताः यावत् अनुगच्छंति, यावत् पदात् पूर्वोक्तं सर्व ग्राह्यम् 'तएणं से मुसणे सेणावई सव्विद्धीए सव्वजुइ जाव णियोसणाइएणं जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस दुवारस्स कवाडा तेणेव उवागच्छइए' ततः तमिस्रागुहाभिमुखगमनान्तरं खलु स सुषेण: सेनापतिः सर्वद्धर्या सर्वया ऋद्धया आभरणादि रूपया लक्ष्म्या तथा सर्वयुत्या सर्वकान्त्या युक्तः सन् यावन्निर्घोषनादितेन पूर्वोक्तसमस्तवाधसहित निर्घोष नामक वाद्यविशेषशब्देन यत्रैव तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य-दक्षिणभागवर्तिनो द्वारस्य कपाटौ तत्रैवोपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य-कपाटसमीपमागत्य 'आलोए पणानं करेइ' आलोके दर्शनमात्रे एव कपाटयोः प्रणामं करोति 'करित्ता' कृत्वा 'लोमहत्थगं परामुसइ' लोमहस्तकं प्रमार्जनिकां परामृशति हस्तेन स्पृशति गृह्णातीत्यर्थः 'परामुसित्ता' परामृश्य गृहीत्वा 'तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे लोमहत्येणं पमज्जइ' तमिस्त्रा गुहायाः दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ लोमहस्तकेन प्रमार्जनिकया प्रमाजयति 'पमज्जित्ता' प्रमाय॑ 'दिवाए उदगधाराए अन्भुक्खेइ' दिव्यया उदकधारया अभ्युक्षति सिंचति स्नपयतीत्यर्थः, 'अब्भुक्खित्ता' अभ्युक्ष्य सिक्त्वा ये विनीत आज्ञा कारिणी थी. इनमें कितनीक दासियों के हाथ में चन्दन के कलश थे. यहां यावत्पद से पूर्वोक्त सब विषय गृहीत हुआ है . (तएणं से सुसेणे सेणावई सम्विद्धीए सव्वजुईए जाव णिग्घोसणाईएणं जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुबारस्स कवाडा तेणेव उवागच्छइ )इस प्रकार वह सुषेण सेनापति अपनी समस्त ऋद्धि से और समस्त पुति से युक्त हुमा यावत् बांजों के गडगडाहट के साथ साथ जहां पर तिमिस्रा गुहा के दक्षिण द्वार के किवाड़ थे वहां पर आ पहुचा. (उवागच्छित्ता आलोए पणामं करेइ , करिता लोम हत्थगं परामुसइ.) वहां आकर उसने उन कपाटों को दिखते ही प्रणाम किया प्रणाम करके फिर उसने लोमहस्तक प्रमानिका- को उठाया (परामुसित्ता तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्त कवाडे लोम हत्थेणं पमज्जइ )उसे उठाकरके उसने तिमिस्र गुफा के दक्षिण दिग्वीदा रके कपाटों को साफ किया-(पमज्जित्ता )साफ करके (दिव्वाए उदगधाराए अन्भुक्खेह ) फिर उन पर उसने दिव्य-उदक की धारा छोडी अर्थात् दिव्य उदक धारा के उन पर छोटे ४ सव विषय संडीत थय। 2. (त पणं से सुसेणे सेणावह सम्विद्धीए सव्वजुइए जार णिग्घोसणाइए णं जेणेव तिमिस गुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडा तेणेव उवागच्छ) આ પ્રમાણે તે સુષેણ સેનાપતિ પિૉની સમસ્ત ધિઅને સમસ્તઘતિથી યુકત થયેલે યાવત વાલોના ધ્વનિ સાથે જ્યાં તિમિસ્રા ગુહાના દક્ષિણ દ્વારના કમાડ હતાત્યાં આવી પહોંચ્યા 'उवाच्छित्ता आलोप पणाम करेइ करित्ता लोमहत्थगं परामुसाइ) त्या भावीनता ડેને જોઈને પ્રણામ કર્યા પ્રણામ કરીને પછી તેણે લેમ હસ્તક પ્રમાનિકા હાથમાં લીધી. 'परामसित्ता तिमिसगुहाए दाहीणिल्लस्स दुवारस्स'कवाडे लोमहत्थेणं पमज्जह) डायमा asa तिभित्र गुडाना क्षिपिता द्वारा पाने साई ध्या(पमज्जित्ता) साई चीन 'दिव्वाए उदगधाराप अम्भुक्खेइ) पछी त भनी ७५२ हिय था। हीरो , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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