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________________ प्रकाशिका टीका तृ. ३ वक्षस्कारः स्० १४ तमिनागुहाद्वारोदाटननिरूपणम् ६९३ 'जेणेव सए आवासे जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ' यत्रैव स्वस्य स्वकीयस्य आवासः-निवासस्थानं यत्रैव पौषधशाला तत्रैव उपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य स सुषेणः सेनापतिः 'दब्भसंथारगं संथरइ' दर्भसंस्तारकं सार्द्ध द्वयहस्तपरिमितं दर्भासनं संस्तृणाति विस्तृणाति 'जाव कयमालस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ' यावत् करणार वर्द्धकिरत्नशब्दापनपौषधशाला विधापनादि सर्व ग्राह्यम् , तेन पौषधशालायां कृतमालस्य देवस्य साधनाय अष्टमभक्तं प्रगृह्णाति 'पगिण्हित्ता' प्रगृह्य 'पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव अट्ठमभत्तसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमई' पौषधशालायां पौषधिकः पौषधव्रतवान् अतएव ब्रह्मचारी यावत् पदात् उन्मुक्तमणिसुवर्णालङ्कार इत्यादि संग्राह्यम् अष्टमभक्ते परिणमति 'परिपणे जायमाने सति' पौषधशालातः प्रतिनिष्क्रामति, 'पडिणिक्खमित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य 'जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छई' स सुषेणः सेनापतिः वहां से शीघ्र ही बाहर आगया-(पडिणिक्वमित्ता जेणेव सए आवासे जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ) वहां आकर वह जहां पर अपना आवास था और जहां पर पौषधशाला थो- वहां पर आया (उवागच्छित्ता दब्भसंथारगं संथरइ) वहां आकर के उसने २॥ हाथ प्रमाण दर्भासन बिछाया-- (जाव कयमालस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ) यावत् कृतमालदेव को वश में करने के लिए उसने अष्टमभक्त की तपस्या धारण करली यहां यावत् से पदसे वर्द्धकिरत्न का बुलाना, पौषधशाला का निर्मापण करने का आदेश देना आदि सब प्रकरण जैसा पिछे लिखा जा चुका है वैसाहो यहां गृहीत हुआ है(पगिण्हित्तासहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव अट्ठमभत्तंसि परिणममाणप्ति पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ) अष्टम भक्त को तपस्या धारण करके पौषध शाला में पोषधव्रत वाला वहब्रह्मचारी यावत् मणिमुक्तादि केअलङ्कारों से रहित बनकर कृतमालदेव का मनमें ध्यान करने लगा यहां पर जैसा कि पूर्व प्रकरण में लिखा जाचुका है वह सब ग्रहण कर लेना चाहिये जब सुषेण सेनापति का गृहीत अष्टम भक्त का तप समाप्त हो चुका तब वह पौषधशाला से बाहर निकला-(पडिणिक्खमित्ता जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ) और बाहर निकल भावास भन या पोषण ती त्या माव्या (उवागच्छित्ता दम्भसंथारगं संथरह) त्यां भावीन तो २॥ काय प्रमाणे मसिन पाथर्यु (जाव कयमालस्स देवस्स अट्ठमभत्त पगिण्हर) યાવત્ કૃતમાલ દેવને વશમાં કરવા માટે તેણે અષ્ટમ ભકતની તપસ્યા ધારણ કરી લીધી. અહીં યાવત પદથી વહેંકિરત્નને બોલાવ, પૌષધશાળાના નિર્માણ માટે તેને આદેશ આપ વગેરે સર્વ ઘટનાઓકે જેના વિષે પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. તે અત્રે પણ સમજવી. (पगिण्हित्ता पासहसालाए पासहिए बंभयारी जाव अg'मभत्तसि परिणममाणसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ) मष्टम सतनी तपस्या धा२५ प्रशन पौषधशालामा पौषत पाणी તે બ્રહ્મચારી યાવત્ મણિમુકતાદિ અલંકારોથી રહિત બને તે મનમાં કુતમાલદેવનું ધ્યાન કરવા લાગ્યો અહીં જે પ્રમાણે પૂર્વ પ્રકરણમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે તે પ્રમાણેનું કથન ગ્રહણ કરવું જોઈએ જ્યારે સુષેણ સેનાપતિની અષ્ટમભકત તપસ્યા સમાપ્ત થઈ ગઈ ત્યારે Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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