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________________ ~ .. जम्बूद्वीपप्रक्षप्तिसूत्रे निग्रहरथस्थापनधनुःपरामर्शवा गोत्क्षेप कोपोत्पादकोपापनयननिर्द्धिसार प्रीतिदान सूत्राणि मागवतीर्थदेवसूत्राधिकारवद् विज्ञेयानि नवरं "जाव अट्ठाहियं महामहिमं करेंति" अष्टादश श्रेणिप्रश्रेणयोऽष्टाहिकां महामहिमां कुर्वन्ति 'करित्ता' कृत्वा वरदामतीर्थाधिपदेस्य विजयोपलक्षिकामष्टाहिकां महामहिमाम्-महान् महिमा यस्या सा तथा तां कुर्वन्ति विधास्यन्ति विधाय 'एयमाणत्तियं पच्चप्पिणंति' एतां भरतादिष्टामाज्ञप्तिका स्वस्वामिभ्यो भरतेभ्यः प्रत्यर्पयन्ति परावर्तयन्ति तदनु अथ प्रभास तीर्थाधिपसाधनायो विजयाणपक्रमते-'तएणं' इत्यादि 'तएणं से दिव्वे चक्करयणे वरदामतित्थकुमारस्स देवस्स अट्टाहियाए महामहिमाए निव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाको पडिनिक्खमई' ततः खलु तदिव्यं चक्ररत्न वरदामतीर्थकुमारस्य देवस्य अष्टाहिकायां महामहिमायां निवृत्तायां सत्याम् मागधतीर्थ कुमार के प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसा ही यहां पर वह सब कथन समझलेना चाहिये । अर्थात् वरदामतीर्थ कुमादेव भरत चक्रो के लिये शिरोभूषणादिक भेट में देता है । वह उसे स्वीकार कर लेता है। भरत चक्री उसका सन्मानादि कर विसर्जन कर देता है। फिर वह वहां से अपने रथ को लौटा लेता है और अपने स्कन्धावार में आ जाता है। वहां आकर वह मज्जन गृह में चला जाता है वहां स्नान करके भोजन शाला में आकर वह भोजन से निवृत्त होकर के श्रेणिप्रवेणि जनों के बुलाता है इत्यादि पव कथन यहां मागधनोर्थकुमार देव के प्रकरणानुसार हो है । (जाव अट्ठादियं महामहिमं करेंति) यावत् वे सब श्रेणिप्रश्रेणिजन वरदामतीर्थाधि। देव के विनयोपलक्ष्य में आठदिन का महोत्सव करते हैं (करेत्ता) और यह सब करके फिर वे नरेश भरत चको को (एयमाणत्तियं पच्चप्पिणंति) इसकी-कार्य हो जाने की खबर दे देते हैं (तएणं से दिवे चक्करयणे वरदामातत्थकुमारस्त देवस्स अट्ठाहियाए महामहिमाए निवत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ ) इस तरह वरदामतीर्थाघिदेव कुमार के विजयोपलक्ष्य में किया गया वह ८ दिन का महामहोत्सव जब निष्पन्न તે આ સંબંધમાં આગત સૂત્રપાઠ માગધતીર્થ કુમારના પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છેએ જ રીતે અહીં પણ તે સર્વકથન જાણી લેવું જાઈએ, એટલે કે વરદામતીર્થ કુમાર દેવ ભરતચક્રી માટે શિરાભૂષણાર્દિક ઉપહારના રૂપમાં આપે છે. તે ઉપહાર ભરતચક્રી સ્વીકાર કરી લે છે. ભરતચક્રી તે દેવનું સમ્માન આદિ કરીને વિસર્જન કરી દે છે. ત્યાર બાદ તે ત્યાંથી પિતાને રથ પાછો વાળે છે અને પિતાના સ્કન્ધાવામાં આવી જાય છે. ત્યાં આવીને તે મજ શાળામાં જતો રહે છે. ત્યાં સ્નાન કરીને જોજનશાળામાં આવીને તે ભેજનથી નિવૃત્ત થઈને શ્રેણિ-પ્રશ્રેણિ જનેને બોલાવે છે. ઈત્યાદિ સર્વકથન અહીં માગધતીકુમાર निवृत्त 5 श्रा-प्राहिय महामहिमं करेंति) यावत ४३ प्र४२१ भुरा छे. (जाव अठ्ठाहियं महामहिमं करेति) यावत् त सव પ્રણે જ વરદા મતીર્થાધિપ દેવના વિજયપલક્ષ્યમાં આઠ દિવસને મહત્સવ કરે છે. (करित्ता) भने भानुभायोशन ५ रीने ५छी तो पाताना नरेश सरतहीन (प्यमाणत्तियं पच्चपिणंति) से माती on अरे छे. (तएणं से दिव्वे चक्करयणे वरदामतित्थकुमारस देवस्ल अहाहियाए महामहिमाए निवत्ताए समाणीप आउहघरसा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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