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________________ ६३० जबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे महारमित्याह-'धरणितलगमणलहुं' धरणितलगमने लघु शीघ्रं -शीघ्रगामिनम् 'बहु लक्खणपसत्यं' बहुलक्षणप्रशस्तम् अनेकशुभलक्षणसंयुक्तम्, पुनश्च कीदृशम् 'हिमवन्त कंदरंतरणिवायसंबद्धियचित्ततिणिसदलियं' हिमवतः कन्दरान्तरनिर्वात संवर्द्धितचित्रतिनिशदलिकम्, तत्र-हिमवतः क्षुद्रहिमालयगिरेः निर्वातानि-वायुरहितानि यानि कन्दरान्तराणि तत्र संवद्धिताश्चित्राः विविधास्तिनिशाः रथरचनात्मकवृक्षविशेषाः त एव दलिकानि दारुणि यस्य तम्, तिनिशनामक सुचारुदारुनिर्मितम् 'कंदरंतरणिवाय' इति मूले पदव्यत्ययः आर्षत्वात् 'जबूणय सुकयकूबरं' जाम्बूनद सुकृतकूबरम् तत्र-जाम्बूनदं जम्बूनदनामकं सुवर्णम् तेन सुकृतं सुघटितं कूबरं युगन्धरं यत्र (तथा युआ इति भाषा प्रसिद्धम्) तम् 'कणय दंडिया' कनकदण्डिकारम्, तत्र कनकदण्डिका:-कनकमयलघुदण्डरूपा अरा यत्र स तथा तम्, पुनश्च कीदृशम् 'पुलयवरिंद णीलसासगपवालफलिहवरणयणलेठुमणिविदुमविभूसियं' पुलकवरेन्द्र नोलसासकप्रवालस्फटिकरत्नलेष्टुमणि विद्रुमविभूषितम्, तत्र पुलकानि वरेन्द्रनीलानि सासकानि रत्नविशेषाः प्रवालानि स्फटिकवररत्नानि च प्रसिद्धानि, लेष्टवो विजातीय रत्नानि, मणय:-चन्द्रकान्तादयः विद्रुमः हुआ-ऐसा आगेके पदके साथ सम्बन्ध है अब यहां पहिले यह प्रकट किया जाता है कि वह महारथ कैसा था-(धरणितलगमणलहुं ) वह पृथिवी तल पर चलने में बहुत शीघ्रता वाला था ( बहुलक्खण पसस्थ, हिमवंत कंदरंतरणिवाय संवद्धिचित्ततिणि सदलियं ) अनेक शुभलक्ष ह युक था हिमवान् पर्वत के वायुरहित भीतर के कन्दरा प्रदेशों में संबद्धित हुए विविध रथ रचनात्मक तिनिश वृक्षविशेषरूप काष्ठ से वह बना हुआ था. ( कंदरंतरणिवाय) इस मूल पद में आर्ष होने से पदव्यत्यय हो गया है. ( जंबूणयसुकयकूबरं ) जम्बूनद नामक सुवर्ण का इसका युगन्धर- जुआ था. ( कणय दंडिआरं ) इसके अरककनक मय लघु दण्डरूपमें थे (पुत्र्यवरिंदणीलसासगपवालालहवररयणलट्ठमणिविदुविभूसियं ) पुलक, वरेन्द्र नीलमणि, सासक, प्रवाल, स्फटिकमणि, लेष्ट-विजातिरत्न चन्द्रकान्त आदि मणि एवं विद्रुम इन सब प्रकार के रत्नादिकों से वह विभूषित था (अडयालोसाररइयतवणिज्जपट्टसंगहियजुत्ततुंब) થયે. આ જાતને આગળનાદ સાથે સંબંધ છે. અત્રે પહેલાં એ પ્રકટ કરવામાં આવે છે કે તે महा। वो ता. (धरणितलगमणलहुँ) ते पृथिवीत ५२ शी तिथी याना तो. (बहुलक्खणपसत्थं, हिमवंतकंडरंतरणिवाय संवद्धिय चित्ततिणि सदलिय) मने शुभसाथी તે યુક્ત હતે. હિમવાન પર્વતના વાયુરહિત અંદરના કંદરા પ્રદેશમાં સંવદ્વિત થયેલા विविध २थरचनात्म तिनि वृक्षविशेष३५ ४थी ते मना तो. (कंदरंतरणिवाय) मे भूहमा भाडावाधा पयत्यय थयेर छे. (जंबूणयसुकयकूबर) पून: नाम सुवर्ण निमित थे २थना धूसरी ता. (कणयदंडिआर) मेना है। भय धु' ३५मां ता. . ( पुलयवरिंदणीलसासगपवालफलिहवररयणलहमणिविद्दुमविभूसिय) ya, વરેન્દ્રનીલમાણ, સાસક, પ્રવાલ, ફિટિકમણિ, લેખુ વિજાતિરત્ન, ચન્દ્રકાંત આદિ મણિ તેંમજ विद्यम से समान नाहीत विभूषित त. (अडयालीसाररइय टट्तबणिज्जप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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