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________________ प्रकाशिका टीका तृ० वक्षस्कारः सू० ४ भरतराज्ञः गमनानन्तरं तदनुचरकार्य निरूपणम् ५६७ शिरसावत्तं मस्तके अञ्जलिं कृत्वेति ग्राह्यम् विनयेन प्रतिशृण्वन्ति विनयपूर्विकामाज्ञप्तिकां स्वीकुर्वन्ति इत्यर्थः (पंडिसृणित्ता) प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य (भरहस्स अंतियाओ पडिणिक्खमेंति) भरतस्य राज्ञः अन्तिकात् समीपात् प्रतिनिष्क्रामन्ति निर्गच्छन्ति ' परिणिक्खमित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य - निर्गत्य (उस्मुकं उक्करं जाव करेंति य कारवेंति य) उच्छुकाम् उत्तरां यावत्कुर्वन्ति च कारयन्ति च भरताज्ञानुसारेण । (करेत्ता कारवेत्ता) कृत्वा कार - यित्वा च ( जेणव भरहे राया तेणेव उवागच्छति) यत्रैव भरतो राजा तत्रैवोपागच्छन्ति ( उवागच्छित्ता) उपागत्य ( जाव तमाणत्तियं पच्चष्पिणंति यावत् ताम् आज्ञप्तिकाम् आज्ञां प्रत्यर्पयन्ति समर्पयन्तीति ।। सू० ४ ॥ यावत्पद से ( करतलपरिगृहीत दशनखं शिरसावर्त मस्तके अंजलि कृत्वा) ऐसा पाठ संग्रहीत हुआ है । ( पडिणित्ता) भरत राजा की आज्ञा को स्वीकार करके (भरहस्स रण्णो अंतियाओ पडिणिक्खमेंति) फोर वे सबके सब भरत राजा के पाससे वापिस अपने स्थान पर लौट आए ( पडिणिक्खमित्ता उस्सुक्कं उक्करं जाव करेंति अ कारवेंति अ) लौटकरके उन्होंने भरत राजा की आज्ञानुसार नगरी में अष्टाह्निका महोत्सव किया और करवाया जिस प्रकार से इस महोत्सव को उच्छुल्का आदि रूप से व्यवस्था करने को आज्ञा राजाने दी थी वैसी हो वह सब व्यवस्था उन्होंने उस की और करवायी । (करेत्ता कारवेत्ता जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छन्ति ) इस उत्सव को करके और कराके फिर वे जहाँ पर भरत राजा था वहाँ पर आये (उवागच्छित्ता जाव तमा पत्तियं पञ्चपिणंति) वहाँ आकर हे राजा जैसी आज्ञा महोत्सव करने कराने की आपने दी थी उसी के अनुसार हमलोगों ने उसे किया है और कराया है ऐसी खबर उन्होंने राजा को आकर के देदी ॥ ४ ॥ वणते तेभवे योताना भन्ने हाथोथी सविनय प्रमाणु अर्या. अहीं यावत् पढथी ( करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावत मस्तके अंजलिं कृत्वा) व पाठ संग्रहीत थये। छे (पडिसुणित्ता) भरत राजनी आज्ञान स्त्री४.२ ४रीने (भरहस्सरण्णो अंतियाओ पडिणिक्ख में ति) पछी तेथे। सर्वे भरत राम पासेथी पाछा पोतपोताना स्थान पर भावी गया. (पंडिणिक्ख मत्ता उत्सुक्कं उक्करं जाव करेंतिअ कारवेतिअ) पाछा इरीने तेथे भरतराजनी આજ્ઞા મુજખ નગરીમાં માહ્નિકા મહે।ત્સવ ઊજવ્યે. અને ઊજવાળ્યે, જે પ્રમાંણે એ મડાત્સવની ઉથ્થુલ્ક વગેર રૂપથી વ્યવસ્થા કરવાની એ જ્ઞા રાજાએ આપી હતી તેવી જ व्यवस्था ते ते उत्सवमा पुरी भने ४२.वडावी (करेत्ता कारवेत्ता जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छन्ति) से उत्सवने वादी नेपछी ते भरत रान तो त्यां याव्या ( उवागच्छित्ता जाव तमाणत्तियं पञ्च पिणंति) त्यां खावीने तेयोराने या प्रमाणे मर આપી કે હે રાજા મહેસ્રવ ઊજવવાની જેવી આજ્ઞા આપશ્રીએ આપી હતી તે મુજબ અમે જે તે મહાત્સવ ઙ્ગજન્યેા છે, અને ઊજવાવ્યા છે ॥ ૪ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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