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________________ प्रकाशिकाटीका तृ० वक्षस्कारः सू ४ भरतराज्ञः गमनानन्तर तदनुचरकार्यनिरूपणम्५५७ यमकसमक प्रवादितेन तत्र महता-बृहता वरत्रुटितानां श्रेष्ठ तुर्याणां यमकसमकं युगपत्प्रवादितं प्रवादनं शब्दकरणं तेन (संखपणवपडहभेरिझल्लरिखरमुहि मुरज मुइंग दुंदुहि निग्घोसणाइएणं) शङ्खपणवपटह भेरीझल्लरीखरमुखीमुरजमृदङ्गदुन्दुभिनिर्धोपनादितेन, तत्र शख:-प्रसिद्धः, पणवो लघुपटहः, पटहस्तु स एव महान् (ढोल) इति भाषा प्रसिद्धः, भेरी ढक्का, झल्लरी-वलयाकारा (शालर) इति भाषा प्रसिद्धा, खरमुखी-काहला भिधोसम्वतुडिम सद्द सणिणएाणं महया इढोअ जाव महया बरतुडिअ जमगसमगपवाइएणं संख पणवपडहभेरिझल्लरिवरमुहि - मुरज मुइंगदुंदुहिणिग्घोसणाइएणं जेणेव आउइघासाला तेणेव उवागच्छइ) इस तरह के ठाट बाट से चलता हुआ वह भरत राजा जहां पर आयुध शाला थी वहां पर आया . ऐसा यहां सम्बन्ध लगा लेना चाहिये । भरत राजा के सम्बन्ध में सूत्रकार कथन करते हुए कहते हैं कि उस समय वह भरत राजा समस्त अलङ्कारों से विभूषित था इसलिये संम्पूर्ण दीप्ति से वह चमक रहा था। समस्त सेना उसके साथ२ चल रही थी। समस्त परिवार उसका उसके साथ साथ था । चक्ररत्न के भक्ति के प्रति बहुमान उसके हृदय में हिलोरे ले रहा था, आदरणीय जन के या आदरणीय वस्तु के दर्शन करने के लिये जिस वेषभषा से जाना चाहिए ऐसे समस्त वेषभूषा से वह सुसज्जित था इस तरह वह भरत राजा अपनी समस्त राज्यविभूति के साथ आयुधशाला में आने के लिये चला आ रहा था समस्त वस्त्र,पुष्पमाल्य एवं अलङ्कारों से विभूषित हुए उस भरत राजा के आगे२ भिन्न प्रकार के बाजे बजते हुए आरहे थे। इनकी ध्वनि और प्रतिध्वनि से पुरस्कृत हुए एवं अपनी महर्द्धिक यावत् द्यति आदि से सौभाग्य की पराकाष्ठा को प्राप्त हुए वे भरत राजा बड़े जोर से एक साथ बजाए गये श्रेष्ठ शंख, - पणव, - लघुपटह, पटह - विशाल, पटह - ढोल, भेरी, - झालर, स्वरमुखी मृदङ्ग, पापायी २ही ती.(तए ण से भरहे राया सव्विइढीए सम्धज्जुइए सव्व बलेण सव्व समुदपण सव्वायरेण सव्वविभूसाए सव्वविभूईए सव्ववत्थपुप्फगंधमल्लाल कारविभूसाए सव्वडिअसहसणिणापणं महया इड्ढीए जाव महया वरतुडि अजमगसमग पवाइएणं संखपणवपडह मेरिझल्लरिखरमुहिमुरजमुइंग दुंदुहिणिरघोसणाइपण जेणेव आउछ घरसाला तेणेव उवागच्छइ) ndi 83भा था यात ते सरत जय सोय શાળા હતી, ત્યાં ગયે. આ જાતને અર્થ અત્રે સમજી લેવું જોઈએ. ભરત રાજાના સંબધમાં સૂત્રકાર કથન કરે છે કે તે સમયે તે ભરત રાજા સર્વ અલંકારોથી વિભૂષિત હતો. એથી તે સંપૂર્ણ દીપ્તિથી પ્રકાશિત થઈ રહ્યો હતો. સંપૂર્ણ તૈન્ય તેની સાથે-સાથે ચાલી રહ્યું હતું તેને સમગ્ર પરિવાર તેની સાથે સાથે ચાલતે હતો. તેના હદયમાં ચક્રરત્ન પ્રત્યે અતીવ ભક્તિ તેમજ બહુમાન ઉપન થયાં. આદરણીય જન અથવા આદરણીય વસ્તુના દર્શન માટે જે વેષભૂષાથી જવું જોઈએ એવી સમસ્ત વેષભૂષાથી સુસજજ હતો. આ પ્રમાણે તે ભરત રાજા પિતાની સમસ્ત રાજ્ય વિભૂતિની સાથે આયુધશાળા તરફ જઈ રહ્યો હતો. સમસ્ત વચ્ચે, પુષ્પમાલય તેમજ અલંકારોથી વિભૂષિત થયેલા તે ભરત રાજાની આગળ ભિન્ન-ભિન્ન પ્રકારના વાજા વાગતા Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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