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________________ प्रकाशिका टीका द्वि वक्षस्कारः सू०६० सुषमदुष्षमासमाकालनिरूपणम् ५०९ पञ्चकसमयऽपराधस्य जघन्यमध्यमत्वेन जघन्येऽपरावे हाकारो मध्यमे च माकारः । तृतीयकुलकरपञ्चकसमये त्वपराधस्य जघन्यत्वेन हाकारमात्र दण्ड मिति । 'दंडणीईओ' इत्यस्योपलक्षणत्वेन शरीरप्रमाणायुष्क प्रमाणादिकं चापि यथासंभवं प्रातिलोम्येन विज्ञेयमिति । 'अण्णे पढ़ति' इत्यादि रूपस्य वाचनान्तरीयपाठस्यायमभिप्राय:- राजधर्मस्य कालप्रभावेण अनारके क्रमशो ब्यवच्छेदात् जनानां च भद्रप्रकृतिकत्वेनाल्पापराधकारित्वाद्, राज्ञां चाऽप्यनुग्रदण्डत्वादपराधदण्डयोरबारकेऽल्पता भविष्यति । ततोऽरिष्टनामचक्रवर्तिकुलोत्पन्नाः पञ्चदश कुलकरा भविष्यन्ति, तदितरे च राजानस्तद्व्यवस्थापितमर्यादारक्षका भविष्यन्ति । ततः कालक्रमेण सर्वेऽप्यहमिन्द्रत्वं प्रतिपन्ना भविष्यन्ति । अत्र य ऋषभनामा सर्वान्तिमः कुलकरः स ऋषभाभिवतीर्थ करादन्योऽबसेयः । तत्र काले च तत्स्थानीयोऽन्तिमस्तीर्थकरो भद्रकन्नामा भविष्यति । अयं च प्रस्तुतारके एकोननवके समय में जघन्य ही अपराध के सद्भाव से हाकार और माकार दण्डनोतियों से एवं तृतीय कुलकर पञ्चक के समय में केवल जधन्य हो अपराध के रह जाने के कारण एक हाकार हो दण्ड नीति से काम लिया जाता है (दण्डणीईओ) यह पद उपलझण रूप है इस कारण शरीर प्रमाण, आयुष्क प्रमाण, आदि की भी यथासंभव प्रति लोमता है यह बात प्रकट को गइ जाननो चाहिये (अण्णे पढंति) इत्यादि रूप वाचनान्तरीय पाठ का यह अभिप्राय है-राजधर्म का कालप्रभाव से इस आरक में क्रमशः व्यवच्छेद हो जावेगा क्योंकि मनुष्य धीरे-धीरे भद्र प्रकृतिवाले हो जायेंगे इससे उनमें अल्पापराधकारिता आती जावेगी राजाजन भी तीन दण्ड देने वाले नहीं होंगे इसलिये अपराध और दण्ड की अल्पता हो जावेगी अरिष्ट नामक चक्रवर्ती के कुल में उत्पन्न हुए १५ कुलकर होंगे इनसे भिन्न जो राजाजन होंगे वे उन कुलकरों को व्यवस्थापित मर्यादा केरक्षक होंगे धीरे-धारे जैसा जैसा काल व्यतीत होता जावेगा वैसे सब मनुष्य अहमिन्द्रत्व को प्राप्त होते जावेंगे इसमें सर्वान्तिम ऋषभ नाम का कुल कर होगा -इम काल में अन्तिम तीर्थकर भद्रकृत नाम का होगा अवसर्पिणो काल के इस रे में जैसे चौवीस तीर्थ करों मे से અપરાધના સદૂભાવથી હાકાર અને માકાર દંડનીતિઓથી તેમજ તૃતીય કુલકર પંચકના સમયમાં કેવલ જઘન્ય અપરાધ જ શેષ રહેવાથી એક હાકાર દંડનીતિથી કામ ચલાવવામાં भाव छ. (दण्डणीईओ) से ५६ 64क्षय ३५ छ. मेथी शरीर प्रमाणु, मायु, प्रमा, कोश्नी पर यथा संभव प्रतिभता छ. यात ४८४२वाभा मावताछ. (अण्णे पढति) ઈત્યાદિ રૂપ, વાચનાન્તરીય પાઠનો એ અભિપ્રાય છે–રાજધર્મનો કાલ પ્રભાવથી એ આરકમાં ક્રમશઃ વ્યવચ્છેદ થઈ જશે કેમકે માણસ ધીમે-ધીમે ભદ્ર પ્રકૃતિવાળા થઈ જશે એથી તેમનામાં અલ્પાપરાધ કારિતા આવતી જશે. રાજાઓ પણ તીવ્ર દંડ આપનારા નહિ થશે. એથી અપરાધ અને દંડની અ૯પતા થઈ જશે, અરિષ્ટ નામક ચક્રવતિના કુળમાં ઉત્પન થયેલા ૧૫ કુલકરે થશે. એમનાથી ભિન્ન જે રાજાએ થશે, તેઓ તે કુલકરેની વ્યવસ્થાપિત મર્યાદાના રક્ષક થશે. ધીમે-ધીમે જેમ-જેમ કાળ વ્યતીત થતો જશે તેમ-તેમ સર્વ મનુ અહમિત્વને પ્રાપ્ત કરતા જશે, એમાં સર્વાન્તિમ ઋષભ નામક કુલકર થશે, એ કાળમાં Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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