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________________ प्रकाशिका टीका द्वि० बक्षस्कार: सू० ६० सुषमदुष्षमाकालनिरूपणम् ५०७ " म्यभिलाप' इति भावः । ततश्च ऋषभस्वामिनोऽभिलापं वर्जयित्वा भद्रकृन्नामकस्य तीर्थङ्करस्याभिलापो वक्तव्य इत्यभिप्रायः । अत्रेदं बोध्यम् - उत्सर्पिण्यां चतुर्विंशतितमतीर्थ कृतोऽभिलापोऽवसर्पिण्यां संजातस्य प्रथमतीर्थकरस्य सदृशः प्रायस्त्वं भद्र कृती वर्णने कलापदेशाभिलापाभावेन बोध्यमिति । अत्र कुलकरविषये वाचनाभेदमाह - 'अण्णे पढति' इत्यादि । (अण्णे पदंति) अन्य पठन्ति - अपरे आचार्या एवं पाठभेद वदन्ति, तथाहि - (तीसे णं समाए पढमे तिभाए इमे पण्णरस कुळगरा - मुप्पनिस्संति, तं जहा सुमई जा उसमे सेसं तं चैव ) तस्यां खलु समायां प्रथमे त्रिभागे इमे पञ्चदश कुलकराः समुत्पत्स्यप्ते, तद्यथा-सुमतिर्यावदृषभः, शेषं तदेव । अयमिहाभिप्रायः केषां चिन्मते उत्सर्पिणीसम्बन्धिसुषमदुप्पमायाः प्रथमे त्रिभागे सुमतिमारभ्य ऋषभपर्यन्ताः संबंधी अभिलाप है, सो इस अभिलाप को छोड कर भद्रकृत् नामके तीर्थकर का अभिलाप कहना | इस कथन का तत्पर्य ऐसा है कि उत्सर्पिणी के २४ वे तीर्थकर का अभिलाप प्राप्त करके अवसर्पिणी में उत्पन्न हुए प्रथम तीर्थंकर के जैसा ही कहना चाहियें. क्यों कि इन दोनों में प्रायः करके समान शोलता है । अभिलाप की प्रायः समानता है ऐसा जो कहा गया है वह भद्रकृत तीर्थंकर के वर्णन में कलादिक के उपदेश के अभिलाप के अभाव से कहा गया है ऐसा जानना चाहिये. यहां कुलकर के विषयमें जो वाचनाभेद है उसे सूत्रकार "अपने पति " इस सूत्र द्वारा प्रकट करते हैं इसमें उन्होंने यह समझाया है कि कितनेक आचार्य ऐसा पाठ भेद कहते हैं - (र्त से णं समाए पढमेतिभाए इमे पण्णरसकुलगरा समुपजिस्संति तं जहा सुमई जाव उसमे सेसं तंचेव) उत्सर्पिणो सम्बन्धी सुषमदुष्षमा के प्रथम विभाग में ये १५ कुलकर उत्पन्न होंगे जैसे सुमति यावत् ऋषभ अर्थात् प्रथम सुमति कुलकर और अन्तिम ऋषभ कुलकर बाकी के जो १३ मध्यके ओर कुलकर हैं उनका नाम पूर्व में प्रकट हो करदिया गया है तथा इन १५ कुलकरों में से ५-५ कुलकरों द्वारा जो जो दण्डनींती चालू की जाती है ले. करमस्वामीवज' ने अभिप्राय ऋषलस्वामी संबंधी अलिसाय छे, तो એ અભિલાષને બાદ કરીને ભદ્રકૃતનામક તીથંકરના અભિલાપ કહેવે. આ કથનનું તાત્પય આ પ્રમાણે છે કે ઉત્સવિંશીના ૨૪મા તીર્થંકરના અભિલાષ પ્રાપ્ત કરીને અવસર્પિણીમાં ઉત્પન્ન થયેલ પ્રથમ તી કરના જેવા જ અભિલાપ કહેવા જોઇએ. કારણ કે એ બન્નેમાં ઘણું કરીને સમાનશીલતા છે, અભિલાપની પ્રાયઃ સમાનતા છે આમ જે કહેવામાં આવેલ છે, તે ભદ્રકૃત તીર્થંકરના વર્ણનમાં કલાર્દિકના ઉપદેશના અભિલાપના અભાવથી કહેવામાં આવેલ છે. એવુ' સમજવુ જાઇએ. અહીં કુલકરના સંધમાં જે વાચના लेह छे, तेने सूत्र " अण्णे पढति" से सूत्र वडे प्रस्ट रे छे. ते आम सभलव्यु छे टाउ मायाय वा पाडलेहने। उस्लेज हरे हे - (तीसे णं समाए पढमेतिभाए इमे पण्णरस कुलगरा समुजिस्सति तं ब्रहा सुमई जाव उसमे सेसं तं चेब) उत्सर्पिणी समधी सुषभदुष्षभाना પ્રથમત્રિભામાં એ ૧૫ કુલકર ઉત્પન્ન થશે. જેમ કે સુમતિચાવત્ ઋષભ સ્વામી એટલે કે પ્રથમ સુમતિ કુલકર અને અ`તિમ ઋષભસ્વામી કુલકર શેષ જે ૧૩ મધ્યના ખીજા કુલકરા છે, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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