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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पद्मवरवेदिका एतस्य बहिर्भागे एको वनषण्डः अपरश्चाभ्यन्तरभागे अतो जगती शिरो विस्तारो वेदिका विस्तारश्च धनुःशतपञ्चकन्यूनोऽर्धी क्रियते ततो यथोक्तं मानं स्पष्टं भवति । तथा स वनषण्डः 'जगइ समए परिक्खेवेणं' जगतो समकः जगती तुल्यः परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्तः 'वणसंडवण्णओ णेयको' बनवण्डवर्णकः वनपण्डवर्णनकारकः सर्वोऽपि पदसमूहोऽत्र ज्ञातव्यः । स चैवम्-'किण्हे किण्होभासे नीले नीलो भासेहरिए हरिओमासे सोए सीओभासे णिद्धे णिद्धोभासे तिव्वे तिब्बो भासे किण्हे किण्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए सीए सीयच्छाए णिद्धे णिद्धच्छाए तिव्वे तिव्यच्छाए घणकडिअच्छाए रम्मे महामेहणिकुरंबभूए तेणं पायवा मूमंतो कदमंतो खंधमंतो तयामंतो सालमतो पवालमंतो पत्तमंतो पुप्फमंतो फलमंतो बीयमंतो अणुपुब्बिसुजायरुइलबट्टभावपरिणया एगखंधी अणेगसाहप्पसाहविडिमा अणेगणरवाममुप्पसारिया गेज्झघणविउलवट्टखंधा अच्छिदपत्ता अविरलपत्ता अचाईणपत्ता अणईईपत्ता णियजरढपंडुरपत्ता णव हरियभिसंतपत्तभारंधयारगंभीरदरिसणिज्जा उवविणिग्गय नवतरुणेपत्तपल्लवकोमलुज्जलचलंत किसलयसुकुमाल पवाल सोभिय वरंकुरग्गसिहरा णिच्चं कुसुमिया णिच्च मउलिया णिच्चं लवइया णिच्चं थवइया णिच्चं गुलइया णिच्चं गुच्छिया णिच्चं जमलिया णिच्च जुलिया णिच्च विणमिया णिच्चं पणमिया णिच्चं कुसुमियमउलियलवइयथवइयगुलइयगोच्छियजमलियजुय५०० धनुष की व्यासवाली एक पद्मवरवेदिका कही गई है ; इस पद्मवरवेदिका के बहिर्भाग में एक वनषण्ड है और भीतर के भाग में भी एक वनषण्ड है जगती के ऊपर के भाग का विस्तार ४ योंजन का है और बिदिशाओं में जो इसका विस्तार है वह ५०० धनुष का है सो इस विस्तार को ऊपर के विस्तार में से कम करने पर एवं अवशिष्ट प्रमाण को आधा करने पर वनषण्ड का यथोक्त प्रमाण निकल आता है, इस वनषण्ड का परिक्षेप " जगई समए परिकलेवेणं " प्रमाण , जगती के परिक्षेप प्रमाण जैसा ही है " वणसंडवण्णो णेयत्वो" वनपण्ड का वर्णन यहां पर कर लेना चाहिये जो अन्य सूत्रों में इस प्रकार से किया गया है “किण्हे किण्होभासे नीले नीलोभासे, हरिए हरिओमासे, सीए सीओभासे, णिद्धे, गिद्धोभासे" જગતીના મધ્યભાગમાં ૫૦૦ ધનુષ જેટલી વ્યાસ યુક્ત એક પદ્યવરવેદિકા છે. આ પદ્વવરવેદિકાના બહારના ભાગમાં એક વનખંડ છે. જગતીના ઉપરના ભાગને વિસ્તાર ૪ યાજન જેટલું છે અને વિદિશાઓમાં જે આ વિસ્તાર છે તે ૫૦૦ ધનુષ જેટલો છે તો આ વિસ્તારને ઉપરના વિસ્તારમાંથી બાદ કરવાથી તેમજ અવશિષ્ટ પ્રમાણને અર્ધા કરવાથી बनम नु यथात प्रमाण मावी जय छे. मा नमन। परिक्ष५ "जगई समए परिक्खेवेण' प्रभा गतीना परिक्ष५ प्रमाण २ छे. वणसंडवण्णओ णेयधो" वनખંડનું વર્ણન અહીં કરી લેવું જોઈએ. જે બીજા સૂત્રોમાં આ પ્રમાણે કરવામાં આવેલ છે. “किण्हे किण्होभासे नीले नीलोभासे, हरिए हरिओभासे, सीए सीओभासे णिद्धे णिद्धो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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