SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 489
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकाशिका टीका. द्वि०वक्षस्कार सूं. ५४ षष्ठारकस्वरूपनिरूपणम् કુંડળ (मच्छकच्छ भे) मत्स्य कच्छपान जाद् गृहीत्वा (थलाई गाहिंति ) स्थलानि ग्रादयिष्यन्ति = तटदेशे समानयिष्यन्ति, (मच्छ कच्छभे थलाई गाहेत्ता) मत्स्य कच्छपान स्थलानि ग्राहयित्वा = मत्स्यकच्छपान् तटप्रदेशे समानीय (सीआतवतत्तेहिं ) शीतातपतप्तैः रात्रौ शीतेन दिवसे चातपेन तप्तैः = शुष्करसैः (मच्छकच्छ भेहि) मत्स्यकच्छपैः (इक्लबसं वाससहस्सा) एकविंशतिं वर्षसहस्राणि (विति कप्पे माणा ) वृत्ति कल्प यन्तः = जीविकां कुर्वन्तो (विहरिस्संति) विहरिष्यन्ति = स्थास्यन्ति । दुष्षम दुष्षमायां समायामग्ने विध्वंसेन आममत्स्यकच्छपानाम् अतिरसानां तज्जठराग्निना परिपाका - संभवेन तत्कालसमुत्पन्ना मनुजास्तान् मत्स्य कच्छपान् शीतातपतप्तानेव भोक्ष्यन्ते इत्युक्तं 'सीयातवतत्तेहिं' इति । पुनगौतमस्वामी पृच्छति - ( तेण भंते! मणुया) ते खलु भदन्त ! मनुजा:- हे भदन्त ! ते षष्ठारकोत्पन्ना मनुष्याः (णिस्सीला) निश्शीला: निकलकर वे (मच्छकच्छभे) मत्स्यो और कच्छपों को जल से पकड़ेंगे और पकड़कर (थलाहिंगाहित) उन्हें ये जमीनपर - तट प्रदेश पर - बाहर ले आवेगे ( मच्छकच्छभे थलाई गाहेत्ता सीआतवतत्तेहिं मच्छकच्छभेहिं इक्कवीसं वाससहस्साइं वित्ति कप्पेमाणा विहरिस्संति ) फिर ये उन मच्छ कच्छपों को रात में शीत में और दिन में धूप में सुखावेंगे इस प्रकार करने से उनका रस जब शुष्क हो जावेगा - अर्थात् वे सब शुष्क हो जायेंगे तब ये उनसे अपनी क्षुधा की निवृत्ति करेंगे इस तरह से ये आरे की स्थिति जो २१ हजार वर्ष की है वहां तक करते रहेंगे ! तात्पर्य यही है कि छठे आरे में अग्निका तो विध्वंस हो जावेगा और आम - गीले-मच्छ कच्छपो कोतो कि जिनमें रस की अधिकता रहती हैं इनकी जठराग्नि पचा नहीं सकेगी इस कारण उस काल में उत्पन्न हुए मनुष्य उन मत्स्य कच्छपों को शोत और आतप में डालकर उन्हें सुखाकर ही खावेंगे यही वात "सीयातवतत्तेहिं" पाठ द्वारा प्रकट की गई है । समय हुशे त्यारै पोतपोताना मिसीभांथी महार नीशे अने (विलेहिंतो णिद्धान्ता) मिसमांथी वेग पूर्व: नीजीने तेथे (मच्छकच्छसे) भत्स्यो भने उच्छयाने पाशुीमांथी, घडशे अने पडीने (थलाहिं गाहेहिति) तेमने भीन उपर तट प्रदेश उपर-महार व्यावशे. (मच्छकच्छ मे थलाई गाहेत्ता सीआतवतत्तेहि मच्छकच्छपेहि इक्कीसं वाससहस्सा वित्त कप्पेमाणा विहरिस्संति) पछी मेथे ते २२ राशीतमां मने દિવસમાં તડકામાં સૂકવશે. આ પ્રમાણે કરવાથી તેમના રસ જ્યારે શુષ્ક થઇ જશે, એટલે કે તેઓ સવે શુષ્ક થઈ જશે, ત્યારે એએ તેમનાથી પેાતાની બુભુક્ષા મટાડશે આ પ્રમાણે આ આરાની સ્થિતિ ૨૧ હજાર વર્ષ જેટલી છે ત્યાં સુધી એએ તેમ કરતા રહેશે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે છઠ્ઠા આરામાં અગ્નિને વિનાશ થઇ જશે અને આમ--ભીના-મચ્છ—કચ્છ પાને કે જેમનામાં રસની અધિકતા રહે છે, એમની જઠરાગ્નિ પચાવી શકશે નહી. આ કારણે તે કાળમાં ઉત્પન્ન થયેલા મનુષ્યેા તે મત્સ્ય કચ્છપેાને શીત અને તપમાં નાખીને तेभने सुवीने ४ जशे से वात "सीयातवतत्तहि' पाठ वडे अट वामां भाषी है. हवे गौतम स्वामी श्री अलुने या प्रमाणे पूछे छे - (तेण भंते । मणुया) डे लहांत !. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy