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________________ प्रकाशिकाटीकाद्विवक्षस्कारसू. ५४ षष्ठारकस्वरूपनिरूपणम् णेन पूर्वोक्ता मेघा(भरहे वासे)भारते वर्षे (गामागर-णगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणासम-गयं)ग्रामाकरनगर-खेट-कर्बट-मडम्ब-द्रोणमुख-पट्टना-श्रम-गतं, तत्र -ग्रामो-वृतिवेष्टितः आकरः-सुवार्णरत्नाधुत्पत्तिस्थानम्, नगरम्-अष्टादशकरवर्जितम् खेटं धूलि-प्राकारपरिक्षिप्तम कवटम्-कुत्सितनगरं, मडम्ब-सार्धक्रोशद्वयान्तग्रीमान्तर हितम, द्रोणमुखं जळस्थलपथोपेतो जननिवासः पत्तनं समस्तवस्तुप्राप्तिस्थानम्, तद् द्विविधं जलपत्तनं स्थलपत्तनं चेति, निगमः प्रभूततरवणिग्जननिवासः आश्रमः यः पूर्व तापसैरावासितः पश्चादपरोऽपि जनो यत्रागत्य वसति सः, एतेषां द्वन्द्वः, तत्रगतं स्थितं (जणवयं) जनवज-जनसमूह विध्वंसयिष्यन्तीत्यग्रेण सम्बन्धः। तथा-ग्रामादिगतान् (चउप्पय-गवेलए)चतुष्पदगवेलकान् चतुष्पदा महिष्यादयः गाव:-गोजातीयाः पशवः, एलका:-मेषास्तान् तथा(खहयरे) खेचरान् वैताव्यवासिनो विद्याधरान् पुनः(पक्खिसंघ) पक्षिसंघान् पक्षिसमूहान् अथवा(खह यरे पक्खिसंघ)खेचरान् पक्षिसंघान-आकाशचारिणः पक्षिसमूहान् तथा(गामारण्णपयारणिकि जिस में जल की धारा प्रचण्ड पवन की चपेटों से इधर उधर विस्वर जावेगी और जनों की ऊपर तीक्ष्ण विशिष्ट आधातों को वह करानेवाली होगी (जे णं भरहे वासे, गामागरणगरखेडकब्बडमंडबदोणमुहपट्टणासमगयं जणवयचउप्पयगवेलए वहयरे पक्खिसंघे) इस वृष्टि से भरत क्षेत्र में स्थित वृतिवेष्टित ग्रामों में, आकर-सुवर्णादिकी स्वानों में अष्टादश करवर्जित नगरों मे, धुलि प्राकार परिक्षिप्त खेटों ग्रामों में, कुत्सितनगर रूप कर्बटों में अढाइ कोश के भीतर २ ग्रामान्तर रहित मडम्बों मे, जलीय मार्ग से युक्त जननिवासरूप द्रोणमुखों में समस्त वस्तुओं की प्राप्ति के स्थान भूत पत्तनों में-जह पत्तों में एवं स्थलपत्तनों में दोनों प्रकार के पत्तनों में, प्रभुततर वणिग्जनों के निवासभूत निगमो में पूर्व में तापसजनों द्वारा आवासित पश्चात् और दूसरे जन जहां आकर रहने लग गये हैं , ऐसे स्थानरूप आश्रमों में रहने वाले मनुष्यों का वे मेघ विनाश करेंगें । तथा उन ग्रामादिकों में रहे हुए चतुष्पदों का महिषी आदिकों का गोजातीय पशुओंका एलकों-मेषों का खेचरो-वैताब्यगिरिवासी विद्याधरों का (पक्खिसंघे) पक्षिसमूहो का अथवा આમ તેમ વેરાઈ જશે. અને તે લાકે ઉપર તે તીણ વિશિષ્ટ આપઘાત કરનારી થશે. (जे णं भरहे वासे, गामागरणगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमगयं नणवयचउप्पयगवेलए खहयरे परित्रसंघ) मा वृष्टिया भरतक्षेत्रमा स्थित वृत्ति albटत आमामा, मा४२ सुत्रદિની ખાણમાં, અષ્ટાદશ કરવજિત નગરોમાં, ઘેલિ પ્રાકાર પરિક્ષિત ખેટ ગ્રામમાં, કુત્સિત નગર રૂપ કMટેમાં, અઢી ગાઉનિ અંદર ગામાન્તર રહિત મડબામાં, જલીય માગથી યુક્ત જનનિવાસ રૂ૫ દ્રોણમુખમાં, સમસ્ત વસ્તુઓની પ્રાપ્તિના સ્થાન ભૂત પત્તનમાં, જલપત્તનેમાં અને સ્થલ પત્તનોમાં–અને પ્રકારના પત્તામાં, પ્રભૂતતર વણિજનેના નિવાસબૂત નિગમામાં, પહેલાં તાપજને દ્વારા આવાસિત અને તપશ્ચત બીજા લેકે જ્યાં લાગ્યા હોય એવા સ્થાન રૂપ આશ્રમમાં રહેનારા માણસને તે મેઘે વિનાશ કરશે તેમજ તે ગ્રામા દિકમાં રહેનારાં ચતુષ્પદેના માહિષી વગેરેનો, જાતીય પશુઓને, અલકમેને– मेय-वैतान्यगिरि निवासी विद्याधराने। (पक्विसंधे) पक्षी-सभूडानी मथवा मास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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