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________________ प्रकाशिका टीका द्विवक्षस्कारसू. ४३ऋषभस्वामिन केवलज्ञानोत्पत्त्यनन्तरकार्यनिरूपणम्३८९ तीयश्रुतस्कन्धान्तर्गतभावनानामकाध्ययनवर्तिपाठानुसारेणात्र ‘भाणियब्वाइंति' भणितव्यानि वक्तव्यानीति । नन्वत्र सूत्रे उद्देशकोटौ 'पंचमहव्वयाइं सभावणगाई छच्च जीवणिकाए' इत्युक्तम् निर्देशकोटौ तु 'पुढविकाइए भावणागमेणं पंच महव्ययाई सभावणगाई भाणियब्वाइंति' इति वैपरीत्येनोक्तम् इति पूर्वोक्तेः पश्चादुक्तिविरुध्यते ? इति चेत् , आह-उद्देशकोटौ पश्चादुक्तानामपि पृथिवीकायिकादीनां निर्देशकोटौं यत्प्रथमत उपादानं तत् स्वल्पवक्तव्यतया 'सूचीकटाह' न्यायेन विचित्रा सूत्राणां कृतिराचार्यस्य' इति न्यायेन वा बोध्यमिति । ननु यथा यतिधर्मः प्रोक्तः तथैव भगवता गृहिधर्मसंविग्नपाक्षिकधर्मावपि वक्तव्यौ मोक्षाङ्गत्वात् , यदुक्तम्-"सावज्जजोगपरिवज्जणाउ सव्वुत्तमो जइधम्मो । बीमओ सावगधम्मो, संविग्गपक्खपहो ॥१॥" छाया-सावधयोगपरिवर्जनात्तु सर्वोत्तमो यतिधर्मः । द्वितीयः श्रावकधर्मः तृतीयः संविग्न पक्षपथः ॥१॥ इति, शंका-इस सूत्र में उद्देश्यकोटि में "पंच महत्वयाइं सभावणगाई छञ्च-जोवनिकाए" ऐसा पाठ कहा गया है और निर्देशकोटि में "पुढविकाइए भावणागमेणं पंच महव्वयाई सभावणगाइ भाणियब्वाइति" ऐसा पाठ कहा है-सो इस प्रकार विपर्यय कथन से परस्पर में पश्चात् उक्त भी पृथिवीयायिक आदिकों का निर्देशकोटि में जो प्रथमतः उपादान किया गया हैं वह उनके सम्बन्ध में स्वप्लवक्तव्यक्ता होने के कारण "सूची कटाह" न्याय के अनुसार किया गया है. आचार्यजन की सूत्रों की रचना विचित्र होती हैं। शंका-भगवान् ने जिस प्रकार यति धर्म कहा है उसी प्रकार उन्हों को गृहस्थधर्म और संविग्नपाक्षिक धर्म भी कहना चाहिये था, क्योंकि ये दो धर्म भी परम्परारूप से मोक्ष के कारणभूत हैं। तदुक्तम्-"सावज्जजोगपरिवज्जणा उ सव्वुत्तमो जइधम्मो । बीओ सावगधम्मो तइओ संविग्गपक्वपहो ॥१॥ जिसमें मन, वचन, काय, कृत,, कारित और अनुमोदना से सर्व सावद्ययोग का परिवर्जन हो जाता है वह यतिधर्म है, इससे उतरता श्रावक At :- सूत्रमा देश रिमा “पंच महव्वयाई सभावणाई छच्चजीवनिकाए" सवा 8 वाम मावस छ, भने निर्देश टिमा “पुढबिकाइए भावणागयेणं पंचमहव्वयाई सभावणगाई भाणियव्वाई ति" मे ५४ छे. तो सतना विपर्यय ४थनथी પરસ્પર પાઠમાં અંતર આવે છે તે આ અંતરનું કારણ શું ? ઉત્તર-ઉદેશ કોટિમાં પશ્ચાત્ ઉફત પણ પૃથિવી કાયિક આદિકનું નિર્દેશ કટિમાં જે પ્રથમતઃ ઉપાદાન કરવામાં આવેલ છે તે એમના સંબંધમાં સ્વ૯૫વક્તવ્યતા હોવાથી “સચી કટાહ” ન્યાય મુજબ કરવામાં આવેલ છે. આચાર્યજનેની સૂત્ર-૨ચના વિચિત્ર डाय छे. શંકા -ભગવાને જે પ્રમાણે યતિ ધર્મ કહેલો છે, તે પ્રમાણે જ ગૃહસ્થ ધર્મ અને સંવિગ્ન પાક્ષિક ધન વિષે પણ નિરૂપણ કરવું જોઈતું હતું. કેમકે એ બન્ને ધર્મ પણ ५२ ५२॥ ३५थी भाक्षना १२ भूत छे. ततभू :-सावज्जजोगपरिवज्जणा उ सव्वुत्तमो अाधम्मो, बीओ सावगधम्मो तइओ संविग्गपक्खपहो ॥१॥ २मा भन-क्यन-जायत Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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